हाइलाइट्स
- उज़्बेकिस्तान में भगवान श्री कृष्ण की पूजा आज भी होती है, जो सनातन धर्म की वैश्विक विरासत का प्रतीक है।
- मुस्लिम देश होने के बावजूद, शिवा शहर के लोग श्रीकृष्ण को मानते हैं अपना आराध्य।
- महाभारत के प्रसंगों और भगवान कृष्ण की भूमिका से लोग हैं भलीभांति परिचित।
- घरों में मूर्ति नहीं रखते लोग, परंतु दिलों में श्रीकृष्ण के लिए अपार श्रद्धा।
- रीति-रिवाज, पूजा-पद्धतियाँ और जीवनशैली में दिखती है भारतीयता की झलक।
प्राचीन काल में संपूर्ण विश्व में फैला था सनातन धर्म
इतिहास के पन्नों में दर्ज तमाम प्रमाण इस ओर इशारा करते हैं कि एक दौर में सनातन धर्म ही वह सार्वभौमिक आस्था थी, जो पूरी दुनिया में व्याप्त थी। भारत से लेकर यूरोप, अफ्रीका से लेकर एशिया तक — हर जगह सनातन संस्कृति की छाप मिलती है। ऐसी ही एक रोचक और चौंकाने वाली कहानी जुड़ी है मध्य एशिया के मुस्लिम देश उज़्बेकिस्तान से, जहां के लोग आज भी भगवान श्री कृष्ण की पूजा करते हैं।
मुस्लिम देश, पर दिलों में श्री कृष्ण
जब किसी मुस्लिम देश में धार्मिक परंपराएं और पूजा-पद्धतियाँ की बात होती है, तो अक्सर इस्लामी रीति-रिवाजों की कल्पना की जाती है। लेकिन उज़्बेकिस्तान, विशेष रूप से उसका ऐतिहासिक शिवा शहर, इन मान्यताओं को चुनौती देता है।
यहां रहने वाले अनेक लोगों के जीवन में भगवान श्री कृष्ण की पूजा न केवल एक परंपरा है, बल्कि वह उनके संस्कारों और आत्मा का हिस्सा बन चुकी है।
शिवा शहर: संस्कृति का जीवित खजाना
उज़्बेकिस्तान का शिवा शहर न सिर्फ एक ऐतिहासिक धरोहर है, बल्कि यह हजारों वर्षों की सनातन परंपरा का भी जीवित साक्षी है। यहां की गलियाँ, प्राचीन भवन और लोगों का व्यवहार इस बात का प्रमाण हैं कि यहां के निवासी कभी सनातन संस्कृति के अंग रहे होंगे।
यहां रहने वाले लोग भगवान श्री कृष्ण की पूजा को अपने जीवन का अभिन्न हिस्सा मानते हैं।
महाभारत और श्रीकृष्ण से परिचित हैं यहां के लोग
यह जानकर हैरानी होती है कि उज़्बेकिस्तान के कई निवासी महाभारत के पात्रों, विशेषकर भगवान श्री कृष्ण के चरित्र से भलीभांति परिचित हैं। उनका मानना है कि श्री कृष्ण मात्र एक धार्मिक व्यक्तित्व नहीं थे, बल्कि वह जीवन दर्शन, नीति और प्रेम के प्रतीक हैं।
मूर्तियों से डर, पर भक्ति में कोई कमी नहीं
कट्टरपंथियों के डर से यहां के लोग भगवान श्री कृष्ण की मूर्ति अपने घरों में नहीं रखते, लेकिन उनकी श्रद्धा और भक्ति में कोई कमी नहीं है।
वे मौखिक परंपरा, भजनों और लोक-कथाओं के माध्यम से श्रीकृष्ण को अपने दिलों में बसाए हुए हैं। भगवान श्री कृष्ण की पूजा उनके लिए एक सामाजिक और आध्यात्मिक पहचान बन चुकी है।
पेड़-पौधों की पूजा और भारतीय समानता
यहां के लोग पेड़-पौधों को भी पूजनीय मानते हैं। जबकि उज़्बेकिस्तान में हरियाली कम है, फिर भी जो भी प्राकृतिक संसाधन उपलब्ध हैं, उन्हें आध्यात्मिक दृष्टि से सम्मान दिया जाता है।
यह परंपरा भारत की वैदिक संस्कृति से मेल खाती है, जहां प्रकृति और देवताओं के बीच अटूट संबंध माना गया है।
रीति-रिवाजों में झलकती है भारतीय संस्कृति
शादी-ब्याह, त्योहारों और मृत्यु संस्कारों तक में यहां के लोग भारत से मिलती-जुलती परंपराओं का पालन करते हैं। कई ऐसे रिवाज हैं जो उत्तर भारत की लोक-संस्कृति से मिलते-जुलते हैं।
भगवान श्री कृष्ण की पूजा के साथ-साथ यहां के लोग धोती, टीका, और तुलसी पूजन जैसे वैदिक रीति-रिवाजों को आज भी निभाते हैं।
ऐतिहासिक प्रमाण क्या कहते हैं?
इतिहासकार मानते हैं कि प्राचीन काल में भारत और मध्य एशिया के बीच व्यापार, ज्ञान और संस्कृति का अद्भुत आदान-प्रदान हुआ करता था। सिल्क रूट के माध्यम से भारतीय संत, व्यापारी और ऋषि यहां तक पहुंचते थे और अपने साथ सनातन धर्म की शिक्षाएँ भी लाते थे।
भगवान श्री कृष्ण की पूजा शायद उन्हीं समयों से शुरू हुई परंपरा है, जो अब भी जिंदा है।
कट्टरपंथियों की नाराज़गी
जहां एक ओर यह बात आश्चर्यजनक और गर्व की है कि भगवान श्री कृष्ण की पूजा एक मुस्लिम देश में आज भी जीवित है, वहीं दूसरी ओर यह कट्टरपंथियों को रास नहीं आ रही।
यहां के लोगों को कभी-कभी धर्म के आधार पर डराया-धमकाया जाता है। फिर भी, उनकी श्रद्धा अडिग है — वे भले ही मूर्ति न रखें, लेकिन दिल में कृष्ण-भक्ति को कभी मरने नहीं देते।
क्या यह सनातन धर्म की वैश्विक विरासत का प्रमाण है?
यह सवाल अब विशेषज्ञों, इतिहासकारों और पुरातत्वविदों के सामने खड़ा हो गया है कि अगर एक मुस्लिम देश के दिल में भगवान श्री कृष्ण की पूजा आज भी ज़िंदा है, तो क्या यह इस बात का प्रमाण नहीं कि सनातन धर्म सचमुच वैश्विक संस्कृति रहा है?
उज़्बेकिस्तान में भगवान श्री कृष्ण की पूजा केवल एक धार्मिक क्रिया नहीं, बल्कि यह एक जिंदा सांस्कृतिक विरासत है। यह दर्शाता है कि चाहे समय कितना भी बदल जाए, सनातन धर्म की जड़ें इतनी गहरी हैं कि उन्हें मिटाना आसान नहीं।
कट्टरपंथ के विरुद्ध यह भक्ति एक मौन विद्रोह है — एक ऐसा विद्रोह जो बिना आवाज़ के इतिहास को फिर से जीवंत कर रहा है।