हाइलाइट्स
Tribals of Rishikesh
का चौंकाने वाला दावा, कहा- “हमारे लिए यीशु ही ईश्वर हैं”- आदिवासी महिला प्रेमलता ने बताया, “स्वप्न में आये यीशु मसीह, कहा- श्रमिक कॉलोनी जाओ”
- गांव में मंदिर नहीं, हर घर में बाइबिल और क्रॉस – एक अलग आस्था की दुनिया
- ईसाई मिशनरियों के प्रभाव और आदिवासी समुदायों में बदलती धार्मिक पहचान
- उत्तराखंड प्रशासन मौन, धार्मिक परिवर्तन पर नहीं की कोई आधिकारिक टिप्पणी
ऋषिकेश की घाटियों में बसा एक अद्भुत विश्वास – ‘Tribals of Rishikesh’ की कहानी
उत्तराखंड की पवित्र भूमि ऋषिकेश को रामायण काल से तप, योग और हिंदू धर्म का गढ़ माना जाता रहा है। यहां पर हर कोने में राम, कृष्ण और शिव की गूंज सुनाई देती है। लेकिन इसी ऋषिकेश के सुदूर आदिवासी क्षेत्रों में एक ऐसी कहानी पनप रही है, जिसने धार्मिक धारणाओं को चुनौती दे दी है।
‘Tribals of Rishikesh’ के नाम से चर्चित इस समुदाय ने एक नया धार्मिक रास्ता चुन लिया है – यीशु मसीह की आराधना। वे खुलकर कहते हैं – “हम राम और कृष्ण को नहीं मानते, हमारे लिए तो यीशु ही ईश्वर हैं।”
प्रेमलता की कहानी – एक सपना जो बदल गया जीवन
स्वप्न में आये यीशु मसीह और मिला नया उद्देश्य
इस समुदाय की सबसे प्रमुख महिला प्रेमलता, जिनका नाम सुनते ही हिंदू परंपरा की झलक मिलती है, कहती हैं – “प्रेमलता कोई हिंदू नाम नहीं है, ये उस प्रेम का नाम है जो मैं यीशु से करती हूं।”
प्रेमलता बताती हैं कि एक रात उन्हें सपना आया, जिसमें यीशु मसीह ने उनसे कहा – “जाओ श्रमिक कॉलोनी, वहां मेरी सेवा करो, वहां मेरा नाम फैलाओ।” यह सपना उनके लिए एक आध्यात्मिक क्रांति था।
Tribals of Rishikesh, Uttarakhand:
We don’t worship Ram and Krishna, for us Jesus is everything.
Yeshu Masih came into in my dream and said, ‘Go to the labor colony.
Premlata is not a Hindu name; it is the name of one who loves. pic.twitter.com/f9asMFpVuL
— Treeni (@TheTreeni) July 8, 2025
ईसाई मिशनरियों का प्रभाव या आत्मिक अनुभव?
धर्मांतरण या व्यक्तिगत आस्था का परिणाम
‘Tribals of Rishikesh’ के इस धार्मिक झुकाव को लेकर बड़ा सवाल यह उठता है – क्या यह सिर्फ एक मिशनरी प्रभाव है या इन आदिवासियों की स्वतंत्र धार्मिक खोज?
कई रिपोर्टों के अनुसार, पिछले एक दशक से ईसाई मिशनरियाँ इन क्षेत्रों में सक्रिय हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के नाम पर सहायताएँ दी जा रही हैं। वहीं दूसरी ओर, समुदाय के लोग दावा करते हैं कि उनका झुकाव केवल आध्यात्मिक अनुभवों के कारण है।
घर-घर में बाइबिल, हर द्वार पर क्रॉस
गांव की नई पहचान – न मंदिर, न मूर्ति
‘Tribals of Rishikesh’ के गांवों में अब न तो मंदिर मिलते हैं और न ही पूजा की घंटियाँ सुनाई देती हैं। हर घर में बाइबिल पाई जाती है और दरवाजों पर सफेद क्रॉस का चिन्ह अंकित होता है।
इन गांवों में रविवार को चर्च में सामूहिक प्रार्थना होती है और ईस्टर, क्रिसमस जैसे पर्व विशेष रूप से मनाए जाते हैं।
स्थानीय हिंदू संगठनों की चिंता
सांस्कृतिक अस्तित्व पर खतरा या धार्मिक स्वतंत्रता?
इस घटनाक्रम को लेकर स्थानीय हिंदू संगठनों में चिंता जताई जा रही है। उनका मानना है कि यह एक सुनियोजित धर्मांतरण की प्रक्रिया है जो आदिवासी संस्कृति को खत्म कर सकती है।
एक स्थानीय संगठन से जुड़े कार्यकर्ता ने कहा – “यह ‘Tribals of Rishikesh’ नहीं, बल्कि ‘Converted Tribals’ हैं। सरकार को इस पर ध्यान देना चाहिए।”
प्रशासन की चुप्पी और कानूनी धुंध
उत्तराखंड प्रशासन इस विषय पर अब तक कोई स्पष्ट बयान नहीं दे पाया है। धर्मांतरण कानूनों की चर्चा तो ज़रूर हो रही है लेकिन कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई है।
धार्मिक स्वतंत्रता भारतीय संविधान का हिस्सा है, लेकिन जब सामूहिक धर्मांतरण की बातें सामने आती हैं तो संवैधानिक सीमाएँ भी चुनौती में पड़ जाती हैं।
राजनीतिक हलचल – चुनावी मुद्दा बनता धर्मांतरण
‘Tribals of Rishikesh’ के धार्मिक रूपांतरण को लेकर अब राजनीति भी गर्माने लगी है। कुछ राजनीतिक दल इसे व्यक्तिगत स्वतंत्रता का मामला बता रहे हैं, जबकि अन्य इसे सांस्कृतिक खतरे के रूप में देख रहे हैं।
विशेषज्ञों का मानना है कि यदि यह मुद्दा इसी तरह उभरता रहा तो आने वाले उत्तराखंड चुनावों में यह बड़ा चुनावी मुद्दा बन सकता है।
समाजशास्त्रियों की राय – नई पहचान की तलाश
समाजशास्त्री मानते हैं कि आदिवासी समुदाय वर्षों से अपनी पहचान के संकट से जूझ रहा है। ‘Tribals of Rishikesh’ का यीशु की ओर झुकाव एक आध्यात्मिक बदलाव के साथ-साथ सामाजिक मान्यता पाने की एक कोशिश भी है।
वे कहते हैं, “यह केवल धर्म का मामला नहीं है, यह सामाजिक समावेशन और पहचान की भी लड़ाई है।”
राम की नगरी में यीशु का प्रभाव
‘Tribals of Rishikesh’ की यह कहानी केवल एक धार्मिक रूपांतरण की नहीं, बल्कि भारतीय समाज में चल रही अंदरूनी उठापटक की प्रतीक है।
जहां एक ओर एक समुदाय नई आस्था की राह पर चल रहा है, वहीं दूसरी ओर उसकी संस्कृति, पहचान और स्वतंत्रता पर सवाल उठ रहे हैं।
क्या यह विश्वास का सच है या बहकावे का जाल – यह निर्णय समय और प्रशासनिक जांच पर निर्भर करेगा।