गौहत्या पर चुप्पी, लेकिन संतों पर हमले क्यों? अनिरुद्धाचार्य ने उठाए बड़े सवाल

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हाइलाइट्स

  •  संत अनिरुद्धाचार्य ने न्यूज़ चैनलों पर साजिश रचने का लगाया गंभीर आरोप
  • संत प्रेमानंद जी के साथ मिलकर समाज से शराब और गुटखा जैसी बुराइयों को हटाने का किया प्रयास
  • न्यूज़ चैनलों पर गुटखा और ऑनलाइन जुए के विज्ञापन प्रसारित करने का लगाया आरोप
  • संतों के विरोध में षड्यंत्र की आशंका, “सत्य बोलने वालों की आवाज़ दबाई जाती है” – अनिरुद्धाचार्य
  • मीडिया के एक वर्ग द्वारा सनातन संस्कृति के संरक्षकों को बदनाम करने की हो रही है कोशिश

संत अनिरुद्धाचार्य ने उठाई मीडिया की भूमिका पर उंगली

देशभर में सनातन संस्कृति और सामाजिक मूल्यों की रक्षा के लिए सक्रिय संत अनिरुद्धाचार्य ने हाल ही में एक बड़ा बयान देकर सियासी और सामाजिक हलकों में हलचल मचा दी है। उन्होंने आरोप लगाया है कि देश के कुछ न्यूज़ चैनल्स जानबूझकर उन्हें और संत प्रेमानंद जी को बदनाम करने का अभियान चला रहे हैं।

संत अनिरुद्धाचार्य का कहना है कि उन्होंने और प्रेमानंद जी ने लाखों लोगों को सत्संग और प्रवचनों के माध्यम से गुटखा, शराब और जुए जैसी सामाजिक बुराइयों से मुक्ति दिलाई है। लेकिन जब इन बुराइयों के खिलाफ उन्होंने आवाज़ उठाई, तो उन्हें मीडिया के एक वर्ग के निशाने पर ले लिया गया।

गुटखा और जुए के खिलाफ मुहिम क्यों बन गई निशाने की वजह?

संतों के प्रयास से युवा बदलने लगे, मीडिया को हुआ नुकसान का डर

संत अनिरुद्धाचार्य ने आरोप लगाया कि कई न्यूज़ चैनलों को गुटखा कंपनियों और ऑनलाइन जुए के ऐप्स से विज्ञापन के रूप में मोटी कमाई होती है। जब संत समाज ने इन बुराइयों के खिलाफ लोगों को जागरूक करना शुरू किया, तो युवाओं में एक सकारात्मक परिवर्तन आया।

युवाओं ने गुटखा और जुए की लत छोड़नी शुरू कर दी, जिससे इन कंपनियों के मुनाफे पर असर पड़ने लगा। मीडिया के वही चैनल, जो इन बुराइयों से जुड़ी कंपनियों के विज्ञापन दिखाते हैं, अब उन संतों को बदनाम करने लगे जिन्होंने इनका विरोध किया।

“हम सत्य की बात करते हैं, इसलिए हमारा विरोध होता है”

संत अनिरुद्धाचार्य ने खोली मीडिया के पक्षपात की परतें

संत अनिरुद्धाचार्य ने सवाल उठाया कि जब देश में खुलेआम गुटखा बेचा जा रहा है, ऑनलाइन जुआ प्रचारित हो रहा है, और गौहत्या जैसे संवेदनशील मुद्दों पर चुप्पी साध ली जाती है, तब संतों की कथाओं और प्रवचनों के खिलाफ इतनी सक्रियता क्यों दिखाई जाती है?

उनका कहना है, “हम सनातन धर्म की बात करते हैं, सत्य की बात करते हैं, इसलिए हमें निशाना बनाया जाता है। अगर आप इन षड्यंत्रों को नहीं देख पा रहे हैं, तो कृपया धृतराष्ट्र मत बनिए।”

संत प्रेमानंद जी भी बन रहे हैं मीडिया हमलों का शिकार

संत प्रेमानंद जी, जो अपने सरल और सहज प्रवचनों से लाखों लोगों को जोड़ चुके हैं, उन्हें भी निशाना बनाया जा रहा है। संत अनिरुद्धाचार्य का कहना है कि प्रेमानंद जी के सत्संग ने हजारों लोगों को शराब और गुटखा से दूर किया है, और यह बात उन लोगों को पसंद नहीं आ रही जो इन बुराइयों के प्रचार से पैसा कमा रहे हैं।

क्या मीडिया की स्वतंत्रता अब कॉरपोरेट लॉबी के हाथों में है?

धार्मिक आवाजों को दबाने की साजिश या लोकतंत्र पर हमला?

भारत में मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है, लेकिन अगर वही स्तंभ किसी कॉरपोरेट लॉबी के दबाव में आकर संत अनिरुद्धाचार्य जैसे आध्यात्मिक व्यक्तित्वों को बदनाम करने में लग जाए, तो यह सवाल खड़ा करता है कि क्या अब मीडिया भी अपने मूल कर्तव्यों से भटक गया है?

संत समाज द्वारा उठाए गए इन मुद्दों पर सरकार और मीडिया संस्थानों को गंभीरतापूर्वक ध्यान देना चाहिए। क्या वास्तव में कुछ चैनल गुटखा कंपनियों और जुए के ऐप्स के पक्ष में संतों को बदनाम कर रहे हैं?

जनता की प्रतिक्रिया: संतों के साथ या मीडिया के?

सोशल मीडिया पर ट्रेंड कर रहा है #संतों_का_अपमान_बंद_हो

संत अनिरुद्धाचार्य और संत प्रेमानंद जी के समर्थन में सोशल मीडिया पर लोगों का जबरदस्त समर्थन देखने को मिल रहा है। ट्विटर, फेसबुक, इंस्टाग्राम जैसे प्लेटफॉर्म्स पर #संतों_का_अपमान_बंद_हो और #सत्य_की_आवाज़_दबाई_जा_रही_है जैसे हैशटैग ट्रेंड कर रहे हैं।

लोग यह सवाल भी उठा रहे हैं कि अगर कोई संत शराब और गुटखा के खिलाफ बोलता है तो वह समाज का भला कर रहा है, न कि किसी कॉर्पोरेट लॉबी का नुकसान। ऐसे में मीडिया को उसका विरोध क्यों करना चाहिए?

 संतों की आवाज़ दबाना नहीं, सुनना ज़रूरी है

आज जब समाज में नैतिकता, धर्म और संस्कृति को बचाने की जरूरत है, तब संत अनिरुद्धाचार्य और संत प्रेमानंद जी जैसे संतों की आवाज़ को सुनना और समझना अनिवार्य हो जाता है। अगर वे गुटखा, शराब और जुए जैसी बुराइयों से युवाओं को बचा रहे हैं, तो उन्हें समर्थन मिलना चाहिए, न कि षड्यंत्रों का शिकार बनना चाहिए।

अगर मीडिया का एक वर्ग वास्तव में इन संतों के खिलाफ मोर्चा खोल रहा है, तो यह न सिर्फ धार्मिक स्वतंत्रता पर हमला है, बल्कि लोकतंत्र की मूल आत्मा पर भी।

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