हाइलाइट्स
- लड़की के अधिकार: समाज में आज भी लड़कियों को अपने फैसले खुद लेने की आज़ादी नहीं मिलती
- परिवार, पढ़ाई, पहनावा और विवाह—हर फैसले पर लड़की की स्वतंत्रता सीमित
- शादी के बाद तो जैसे उसकी सोच, इच्छाएं और सपने ‘गृहस्थी’ के बोझ तले दबा दिए जाते हैं
- लड़कों को जहां खुली छूट होती है, वहीं लड़कियों को हर मोड़ पर टोक दिया जाता है
- बराबरी के अधिकार की मांग अब शब्दों से आगे, हकीकत में बदलनी चाहिए
क्या लड़की के अधिकार सिर्फ बहस तक सीमित रह गए हैं?
समाज के दोहरे मापदंड: लड़की के अधिकार बनाम लड़के की स्वतंत्रता
भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में जहां संविधान हर नागरिक को समान अधिकार देता है, वहां लड़की के अधिकार अब भी जमीनी हकीकत से कोसों दूर हैं। एक ही परिवार में पले-बढ़े दो बच्चे—एक लड़का और एक लड़की—के बीच जो अंतर देखा जाता है, वह सिर्फ जेंडर नहीं, बल्कि मानसिकता की गहरी खाई को दर्शाता है।
लड़के को जहां हर फैसले में स्वतंत्रता मिलती है—चाहे वह पढ़ाई हो, करियर हो या शादी, लड़की को उन्हीं फैसलों में परिवार और समाज की ‘स्वीकृति’ की जरूरत होती है। यह असमानता आखिर कब तक?
पढ़ाई से लेकर पहनावे तक, हर कदम पर निगरानी
लड़की के अधिकार स्कूल से ही सीमित किए जाते हैं
जब एक लड़की स्कूल में दाखिला लेती है, तभी से उसकी राहों पर बंदिशें शुरू हो जाती हैं।
- कौन सा विषय पढ़ेगी?
- कितनी दूर तक पढ़ेगी?
- किस उम्र में शादी होगी?
इन सवालों के जवाब अक्सर परिवार तय करता है, न कि लड़की खुद। वहीं लड़कों को यह कहकर खुली छूट मिलती है—”जो करना है, खुद सोचो।”
पहनावे पर पाबंदी, सोच पर पहरा
लड़की के अधिकार के नाम पर अक्सर सिर्फ ‘सुरक्षा’ का हवाला दिया जाता है।
“तुम स्कर्ट क्यों पहन रही हो?”
“रात में बाहर नहीं जा सकती।”
“लड़कों से ज्यादा बात मत किया करो।”
इन वाक्यों में छुपी पितृसत्ता लड़की की मानसिक स्वतंत्रता पर गहरी चोट करती है।
शादी से पहले लड़की, शादी के बाद ‘पराई’
क्या एक लड़की को अपनी ज़िंदगी के फैसले खुद लेने का अधिकार नहीं है?
समाज में एक लड़के को अपनी ज़िंदगी के हर छोटे-बड़े फैसले लेने की पूरी आज़ादी होती है, चाहे वो पढ़ाई का हो, करियर का हो, या शादी का। लेकिन जब बात एक लड़की की होती है, तो वही समाज उसे फैसले लेने से रोक देता है।
शादी… pic.twitter.com/UnnaIjzkNN— Arti (@Arti_am1) July 31, 2025
विवाह: स्वतंत्रता का अंत?
भारतीय समाज में अक्सर यह मान लिया जाता है कि लड़की की ज़िंदगी का उद्देश्य विवाह है। शादी के पहले तो परिवार उसके फैसले करता है, लेकिन शादी के बाद यह भूमिका ससुराल और पति निभाते हैं।
- करियर बनाना है? पहले ससुराल से पूछो।
- कहीं बाहर जाना है? पति से इजाज़त लो।
- बच्चे कब हों? फैसला पति और परिवार का।
लड़की के अधिकार की यह परिभाषा आखिर किस संविधान में लिखी गई है?
लड़की भी इंसान है, वस्तु नहीं
भावनाओं और सपनों की अनदेखी क्यों?
हर लड़की की अपनी इच्छाएं, सपने और सोच होती है। वह डॉक्टर बनना चाहती है, लेखक बनना चाहती है, अंतरिक्ष में जाना चाहती है। लेकिन अक्सर उसके ये सपने ‘किचन’ और ‘कुर्ता’ के बीच गुम हो जाते हैं।
लड़की के अधिकार का मतलब सिर्फ स्कूल भेज देना नहीं है, बल्कि उसके हर निर्णय में उसकी भागीदारी सुनिश्चित करना है।
क्या है हल? कैसे मिले लड़की को अधिकार?
परिवार से शुरुआत हो
बदलाव की शुरुआत घर से होनी चाहिए।
- लड़कों और लड़कियों को एक जैसी आज़ादी
- बेटियों की राय को बराबरी से महत्व
- निर्णय लेने की आदत और अधिकार देना
कानून से आगे, समाज की सोच बदले
संविधान ने समानता दी है, अब समाज को उसे अपनाना होगा।
- शादी की उम्र तय करने से पहले लड़की की मर्ज़ी पूछी जाए
- करियर के चुनाव में परिवार सहयोग करे, रोक नहीं
- लड़की को भी हक़ हो कि वो कहे—”यह मेरी ज़िंदगी है”
कब मिलेगा लड़की को अधिकार?
“बराबरी सिर्फ शब्दों में नहीं, ज़िंदगी में होनी चाहिए।”
यह वाक्य सुनने में अच्छा लगता है, पर क्या यह हमारे रोज़मर्रा के व्यवहार में दिखता है?
जब तक लड़की के अधिकार को परिवार, स्कूल, समाज और सरकार सब मिलकर नहीं समझेंगे, तब तक यह सवाल बना रहेगा—
क्या लड़की को कभी अपनी ज़िंदगी खुद जीने का अधिकार मिलेगा?
समाज को अब यह मानना होगा कि लड़की कोई बोझ नहीं, एक स्वतंत्र सोचने वाली, निर्णय लेने वाली इंसान है। उसे अपने सपनों को उड़ान देने का हक़ उतना ही है जितना किसी भी लड़के को।
अब समय आ गया है कि बदलाव केवल नारों तक सीमित न रह जाए, बल्कि असल ज़िंदगी में दिखे। तभी लड़की के अधिकार सच्चे मायनों में सार्थक हो सकेंगे