हाइलाइट्स
- रामायण और महाभारत विवाद: वीसीके नेता वन्नियारासु ने दोनों महाकाव्यों को ऑनर किलिंग से जोड़ा, जिससे राजनीति में बवाल मचा।
- वन्नियारासु ने रामायण के उत्तरकांड में शंबूक प्रसंग का हवाला देते हुए जाति आधारित हिंसा पर सवाल उठाए।
- उन्होंने कहा कि बाबा आंबेडकर इस सोच को खत्म करना चाहते थे, जो वर्णाश्रम व्यवस्था से जुड़ी है।
- तमिलनाडु बीजेपी के पूर्व अध्यक्ष के. अन्नामलाई ने इसे भारतीय सभ्यता और सनातन धर्म पर हमला बताया।
- विवाद ने तमिलनाडु की राजनीति में गरमी और धार्मिक समुदायों में तीखी बहस छेड़ दी।
तमिलनाडु में एक बार फिर धर्म और राजनीति का टकराव चर्चा में है। मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन की सहयोगी पार्टी वीसीके (VCK) के नेता वन्नियारासु ने हाल ही में एक बयान देकर नया विवाद खड़ा कर दिया है। वन्नियारासु ने रामायण और महाभारत विवाद को केंद्र में लाते हुए कहा कि इन महाकाव्यों ने जातिगत हिंसा और ऑनर किलिंग जैसी सामाजिक बुराइयों को वैधता दी है। उनके इस बयान ने राजनीतिक हलकों में तीखी प्रतिक्रियाओं को जन्म दिया है और खासकर बीजेपी ने इसे भारतीय सभ्यता पर हमला करार दिया है।
वन्नियारासु ने क्या कहा?
शंबूक प्रसंग का हवाला
वन्नियारासु ने अपने बयान में रामायण के उत्तरकांड के शंबूक प्रसंग का जिक्र किया। उन्होंने कहा कि एक ब्राह्मण अपने मरे हुए बेटे को लेकर राम के पास जाता है और कहता है कि धर्म बिगड़ गया है, इसलिए अनहोनी हो रही है। इसके बाद भगवान राम जंगल में शंबूक नामक एक आदिवासी तपस्वी को देखते हैं और उससे प्रश्न करते हैं कि इतनी नीची जाति का व्यक्ति तपस्या कैसे कर सकता है। इस प्रसंग में शंबूक की हत्या कर दी जाती है और ब्राह्मण का बेटा पुनर्जीवित हो जाता है।
वन्नियारासु का कहना है कि यह कहानी जातिगत भेदभाव और हिंसा को वैधता प्रदान करती है। उन्होंने आरोप लगाया कि इसी मानसिकता के कारण समाज में आज भी अंतरजातीय विवाह को लेकर हिंसा यानी ऑनर किलिंग होती है। इस पूरे घटनाक्रम को उन्होंने सीधे-सीधे रामायण और महाभारत विवाद से जोड़ा।
बाबा आंबेडकर और जातिवाद का मुद्दा
वन्नियारासु ने यह भी कहा कि बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर हमेशा इस सोच के खिलाफ रहे और उन्होंने इसे खत्म करने की दिशा में काम किया। उनके मुताबिक, रामायण और महाभारत जैसे ग्रंथों में पाए जाने वाले कुछ प्रसंग वर्णाश्रम व्यवस्था को मजबूत करते हैं और जातिगत विभाजन को बढ़ावा देते हैं। उनका दावा है कि यह सोच ही समाज में विभाजन और हिंसा की जड़ है।
अन्नामलाई का पलटवार
तमिलनाडु बीजेपी के पूर्व अध्यक्ष के. अन्नामलाई ने वन्नियारासु के बयान पर कड़ा विरोध जताया। उन्होंने कहा कि शंबूक प्रसंग वाल्मीकि रामायण का हिस्सा नहीं है और न ही यह तमिल कवि कंबन की रामायण में मिलता है। अन्नामलाई के अनुसार, इस तरह की कहानियों का उपयोग भारतीय सभ्यता को बदनाम करने और रामायण और महाभारत विवाद को राजनीतिक रंग देने के लिए किया जा रहा है।
उन्होंने डीएमके और उसके सहयोगियों पर सनातन धर्म के खिलाफ नफरत फैलाने का आरोप लगाया। अन्नामलाई ने कहा कि सनातन धर्म ने हजारों वर्षों से हमलों का सामना किया है और आगे भी इस तरह के हमलों से अप्रभावित रहेगा।
तमिलनाडु की राजनीति में नया तूफान
यह पहला मौका नहीं है जब तमिलनाडु में धार्मिक ग्रंथों को लेकर विवाद खड़ा हुआ है। पहले भी द्रविड़ राजनीति से जुड़े नेताओं ने हिंदू धर्म और उसके ग्रंथों पर सवाल उठाए हैं। इस बार रामायण और महाभारत विवाद के मुद्दे ने एक बार फिर बीजेपी और डीएमके खेमे को आमने-सामने ला दिया है।
डीएमके और उसकी सहयोगी पार्टियां अक्सर वर्णाश्रम व्यवस्था और ब्राह्मणवाद की आलोचना करती रही हैं। वहीं बीजेपी इन आलोचनाओं को भारतीय संस्कृति और सनातन धर्म पर हमला मानती है। यही वजह है कि हर बार ऐसे बयानों से राजनीति गरमा जाती है।
क्या सचमुच ग्रंथ जिम्मेदार हैं?
अलग-अलग दृष्टिकोण
धर्म और साहित्य के जानकारों का मानना है कि महाकाव्य जैसे ग्रंथों की व्याख्या अलग-अलग दृष्टिकोण से की जा सकती है। एक पक्ष कहता है कि इन कहानियों में सामाजिक व्यवस्था की झलक मिलती है, जबकि दूसरा पक्ष मानता है कि यह सिर्फ प्रतीकात्मक कथाएं हैं जिनका उद्देश्य नैतिक शिक्षा देना था।
शंबूक प्रसंग पर मतभेद
विशेषज्ञ बताते हैं कि शंबूक प्रसंग को लेकर हमेशा से मतभेद रहे हैं। कुछ विद्वान मानते हैं कि यह बाद में जोड़ा गया हिस्सा है, जबकि कुछ इसे असली हिस्सा मानते हैं। यही वजह है कि रामायण और महाभारत विवाद जैसे मुद्दों पर हमेशा बहस छिड़ जाती है।
समाज पर असर
जातिगत हिंसा और ऑनर किलिंग
भारत में आज भी ऑनर किलिंग और जातिगत हिंसा की घटनाएं सामने आती हैं। कई समाजशास्त्री मानते हैं कि धार्मिक ग्रंथों की गलत व्याख्या और पुरानी सोच इन घटनाओं को बढ़ावा देती है। वन्नियारासु के बयान ने इस बहस को नया मोड़ दे दिया है।
राजनीति का हस्तक्षेप
राजनीतिक दल इन मुद्दों को अपने-अपने तरीके से उठाते हैं। जहां एक ओर डीएमके और उसकी सहयोगी पार्टियां इसे सामाजिक सुधार की बहस बताती हैं, वहीं बीजेपी इसे आस्था और धर्म पर हमला मानती है।
रामायण और महाभारत विवाद ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि धर्म और राजनीति का रिश्ता बेहद संवेदनशील है। वन्नियारासु के बयान ने समाज और राजनीति दोनों को झकझोर दिया है। एक ओर इसे जातिवाद और हिंसा की जड़ों से जोड़कर देखा जा रहा है, तो दूसरी ओर इसे भारतीय संस्कृति और सनातन धर्म पर हमला करार दिया जा रहा है।
अंततः सवाल यही है कि क्या धार्मिक ग्रंथों की आलोचना सामाजिक सुधार की दिशा में एक कदम है, या फिर यह राजनीति का हिस्सा बनकर समाज में और अधिक विभाजन पैदा कर रही है।