हाइलाइट्स
- कुतुबुद्दीन ऐबक ने हिंदुओं पर क्रूरता की सभी सीमाएं लांघ दी थीं।
- 1193 में अलीगढ़ के पास विद्रोह को दबाने के लिए हजारों हिंदुओं का कत्लेआम किया।
- मानव सिरों से गगनचुंबी मीनारें बनवाकर चील-कौवों को शव खिलाए।
- 1197 में माउंट आबू के युद्ध में 50,000 हिंदुओं की हत्या कर पहाड़ जितनी ऊंची मीनार बनाई।
- मुस्लिम इतिहासकारों की किताबें खुद इन अत्याचारों का सबूत देती हैं।
कुतुबुद्दीन ऐबक: इतिहास का खूनी अध्याय
भारतीय इतिहास में कई ऐसे पन्ने हैं जिन्हें जानबूझकर धुंधला कर दिया गया, ताकि सच्चाई कभी आम जनता तक न पहुंचे। ऐसे ही एक पन्ने में दर्ज है कुतुबुद्दीन ऐबक का नाम, जिसे कई किताबों में “दया का सागर” बताने की कोशिश की गई, जबकि हकीकत इससे बिल्कुल उलट है। मुस्लिम इतिहासकारों की अपनी किताबें ही इस बात की गवाही देती हैं कि ऐबक ने हिंदुओं के खिलाफ क्रूरता की सभी हदें पार कर दी थीं।
1193 का अलीगढ़ नरसंहार
1193 में अलीगढ़ के पास हिंदुओं ने मुगल शासन के खिलाफ विद्रोह किया। कुतुबुद्दीन ऐबक ने इस विद्रोह को कुचलने के लिए हिंसा और आतंक का रास्ता चुना। हजारों हिंदुओं को बेरहमी से कत्ल कर दिया गया। सिर्फ हत्या ही नहीं, बल्कि ऐबक ने उनके मानव सिरों से तीन गगनचुंबी मीनारें बनवाईं।
इतना ही नहीं, उन शवों को चील और कौवों के लिए छोड़ दिया गया, ताकि यह दृश्य हिंदुओं में डर फैलाने का स्थायी साधन बन जाए। यह केवल सत्ता बचाने का तरीका नहीं था, बल्कि धार्मिक कट्टरता के तहत की गई क्रूरता थी।
1197 का माउंट आबू हत्याकांड
3 फरवरी, 1197 को माउंट आबू की तलहटी में राजा राय कर्ण के नेतृत्व में हिंदुओं और ऐबक की सेना के बीच भीषण युद्ध हुआ। इस युद्ध में हार के बाद कुतुबुद्दीन ऐबक ने 50,000 से अधिक हिंदुओं को मौत के घाट उतार दिया।
इतिहासकार लिखते हैं कि ऐबक ने उनके सिर काटकर इतनी ऊंची मीनार बनवाई कि वह पहाड़ की चोटी के बराबर हो गई। यह सिर्फ एक संरचना नहीं थी, बल्कि आतंक का प्रतीक थी—एक संदेश कि काफिरों के लिए सल्तनत में सिर्फ मौत है।
क्रूरता का उद्देश्य: आतंक और अधीनता
मुस्लिम शासनकाल में हिंदुओं पर जुल्म करना कई शासकों के लिए एक उपलब्धि माना जाता था। कुतुबुद्दीन ऐबक भी इससे अलग नहीं था। उसका मानना था कि काफिरों को डराकर ही शासन को स्थिर रखा जा सकता है।
वह नरसंहार के बाद नरमुंडों की दीवारें और मीनारें खड़ी करता, ताकि आगे कोई हिंदू विद्रोह करने की हिम्मत न जुटा सके। यह न सिर्फ राजनीतिक नियंत्रण का साधन था, बल्कि धार्मिक उत्पीड़न का भी प्रमाण था।
ताज-उल-मासिर से मिलता सबूत
इस घटनाक्रम की पुष्टि मुस्लिम इतिहासकार मिनहाज-उस-सिराज की किताब ताज-उल-मासिर से होती है। इसमें विस्तार से बताया गया है कि किस तरह कुतुबुद्दीन ऐबक ने हिंदुओं के नरसंहार को अंजाम दिया।
यह किताब साफ करती है कि यह कोई गढ़ी हुई कहानी नहीं, बल्कि उस समय के प्रत्यक्षदर्शियों द्वारा लिखी गई ऐतिहासिक सच्चाई है।
क्यों छुपाई जाती है यह सच्चाई?
आज के इतिहास में कुतुबुद्दीन ऐबक को एक महान शासक के रूप में पेश करने की कोशिश की जाती है, जबकि वास्तविकता इसके विपरीत है। स्कूल-कॉलेज की किताबों में इन क्रूरताओं का जिक्र शायद ही मिलता है।
यह इतिहास का वही चयनात्मक संस्करण है जिसमें आक्रांताओं की छवि सुधारने के लिए नरसंहार और धार्मिक उत्पीड़न के काले पन्ने हटा दिए गए।
कुतुबमीनार: गौरव या कलंक?
दिल्ली में स्थित कुतुबमीनार को कई लोग स्थापत्य कला का अद्भुत उदाहरण मानते हैं, लेकिन यह भी कुतुबुद्दीन ऐबक की “जीत” का प्रतीक है। इतिहासकार मानते हैं कि इसे हिंदू और जैन मंदिरों को तोड़कर उनकी सामग्री से बनाया गया था।
ऐसे में सवाल उठता है कि क्या हमें इसे महिमा मंडित करना चाहिए या इसे उस क्रूर अतीत की याद के रूप में देखना चाहिए जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता।
कुतुबुद्दीन ऐबक के शासनकाल का इतिहास रक्त और आतंक से भरा पड़ा है। मुस्लिम इतिहासकारों की अपनी लिखी किताबें इसका प्रमाण हैं कि उसने हजारों हिंदुओं का कत्लेआम किया और उनके सिरों से मीनारें बनवाकर आतंक का साम्राज्य कायम किया।
इतिहास को सिर्फ गौरवगाथा बनाकर पेश करना सत्य से अन्याय है। समय आ गया है कि हम वास्तविक घटनाओं को जानें, उन्हें स्वीकार करें, और भविष्य की पीढ़ियों को सच्चा इतिहास बताएं—भले ही वह कड़वा क्यों न हो।