क्या तिलक लगाने पर ही साबित होगा देशभक्त मुसलमान? जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला के सवाल ने देश को सोचने पर मजबूर कर दिया

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हाइलाइट्स

  • Muslim Identity को लेकर फारूक अब्दुल्ला का तीखा सवाल, “क्या तिलक लगाकर ही साबित होगा राष्ट्रप्रेम?”
  • पूर्व मुख्यमंत्री के बयान के बाद जम्मू‑कश्मीर से दिल्ली तक गरमाई राजनीतिक बहस।
  • सोशल मीडिया पर #MuslimIdentity ट्रेंड, लाखों यूज़रों ने साझा किए व्यक्तिगत अनुभव।
  • विपक्ष ने कहा—अब्दुल्ला ने “भारतीय मुस्लिम” के असल दर्द को आवाज़ दी; सत्ताधारी दल ने लगाया “ध्रुवीकरण” का आरोप।
  • विशेषज्ञों ने याद दिलाया—संविधान सभी नागरिकों को समता, धर्म‑स्वातंत्र्य और Muslim Identity सहित सांस्कृतिक अधिकार देता है।

Muslim Identity पर अब्दुल्ला का बड़ा बयान

जम्मू‑कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. फारूक अब्दुल्ला ने श्रीनगर में एक सार्वजनिक कार्यक्रम के दौरान भावनात्मक स्वर में पूछा, “आप कब हमें इंसान समझेंगे, कब हमें भारतीय समझेंगे—क्या तब जब हम तिलक लगाना शुरू कर देंगे? मैं मुसलमान हूं, मुसलमान रहूंगा और मुसलमान मरूंगा।” उनके इस कथन ने Muslim Identity और राष्ट्रवादी प्रतीकों के बीच लंबे समय से चल रही बहस को फिर से सुर्ख़ियों में ला दिया।

बयान की पृष्ठभूमि

कार्यक्रम दरअसल घाटी के युवाओं के लिए आयोजित एक “सद्भावना संवाद” था। यहाँ कई प्रतिभागियों ने धार्मिक व सांस्कृतिक पहचान को लेकर भेदभाव की शिकायतें रखीं। अब्दुल्ला, जो जम्मू‑कश्मीर में धर्मनिरपेक्ष राजनीति के पुराने ध्वज‑वाहक माने जाते हैं, ने Muslim Identity की असुरक्षा का उल्लेख करते हुए कहा कि किसी भी नागरिक को अपने मज़हबी चिह्न बदलकर भारतीयता का प्रमाण‑पत्र नहीं लेना चाहिए।

कश्मीर की बदलती फ़िज़ा

सेना‑सरकार की संयुक्त पहलों और बदलती सुरक्षा स्थिति के बीच कश्मीर का युवा वर्ग रोज़गार, शिक्षा और यात्रा के नए अवसर पा रहा है। फिर भी, “अपना तिलक या टोपी उतारो” जैसी अनौपचारिक सलाहें आज भी यात्रियों को सुनने को मिल जाती हैं। इसी संदर्भ में Muslim Identity की स्वाभाविक अभिव्यक्ति और राष्ट्रीय प्रतीकों की समानान्तर मौजूदगी का प्रश्न उठा।

राजनीतिक दलों की Muslim Identity पर प्रतिक्रिया

बयान के तुरंत बाद नेशनल कॉन्फ़्रेंस ने प्रेस रिलीज़ जारी कर कहा कि अब्दुल्ला का उद्देश्य “संविधान में निहित बहुलतावादी चरित्र की रक्षा” है। वहीं, भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के प्रवक्ता ने इसे “चुनावी ध्रुवीकरण का प्रयास” बताया और पूछा कि “कश्मीर में तिरंगा न उठाने का दर्द कौन समझाएगा?”

विपक्ष की आवाज़

कांग्रेस तथा वामदलों ने संयुक्त बयान में कहा कि Muslim Identity और राष्ट्रवाद को टकराव की बजाय समावेशी नजरिये से देखने की ज़रूरत है। उन्होंने यह भी जोड़ा कि देशभर में बढ़ती ‘वेशभूषा‑आधारित प्रोफाइलिंग’ को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।

सत्तापक्ष का पलटवार

बीजेपी नेताओं ने गिना दिया कि “केंद्रीय योजनाओं का सबसे बड़ा लाभ जम्मू‑कश्मीर के मुस्लिम बहुल ज़िलों को मिला है।” उनका तर्क था कि “सरकार की ‘सबका साथ, सबका विकास’ नीति Muslim Identity का सम्मान करती है।”

सोशल मीडिया पर बहस: ट्रेंडिंग #MuslimIdentity

ट्विटर (अब X) पर #MuslimIdentity हैशटैग कुछ ही घंटों में टॉप‑ट्रेंड बन गया। एक यूज़र ने लिखा, “मैंने तिलक भी लगाया और टोपी भी पहनी—मैं हिंदुस्तानी हूं, दिक्कत किसे है?” दूसरी ओर, कुछ ने दावा किया कि “वेस्टर्न एयरपोर्ट्स पर सर पर टोपी देखकर अब भी सेकेंड्री चेक” होता है—यानी Muslim Identity अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी चुनौतियों से घिरी रहती है।

मीम्स से मैशअप तक

इंस्टाग्राम रील्स में युवाओं ने “तिलक‑टोपी चैलेंज” लॉन्च किया: एक ही फ्रेम में दोनों प्रतीकों के साथ तस्वीरें खींचकर “हम भारत हैं” का संदेश दिया। यूट्यूब व्लॉगर्स ने भी लंबी चर्चाएँ कीं, जहाँ Muslim Identity को ‘हार्ड पॉलिटिक्स’ का स्थायी मुद्दा बताया गया।

संविधान में Muslim Identity की जगह

भारत का संविधान अनुच्छेद 25‑30 के माध्यम से प्रत्येक नागरिक को धर्म मानने, उसका प्रचार करने व सांस्कृतिक संस्थाएँ संचालित करने का अधिकार देता है। अनुच्छेद 29‑30 धार्मिक‑लinguistic अल्पसंख्यकों को शैक्षणिक संस्थाएँ स्थापित करने की गारंटी देता है। विशेषज्ञ मानते हैं कि Muslim Identity इन प्रावधानों की बदौलत न सिर्फ संरक्षित है, बल्कि राष्ट्र के लोकतांत्रिक ताने‑बाने को भी समृद्ध करती है।

सुप्रीम कोर्ट के उल्लेखनीय फैसले

  • शाह बानो केस (1985) के बाद संसद ने मुस्लिम पर्सनल लॉ पर कानून बनाकर Muslim Identity से जुड़े वैवाहिक अधिकारों को मान्यता दी।
  • सबरिमला निर्णय (2018) में अदालत ने कहा, “धार्मिक आज़ादी का दायरा व्यक्तिगत सम्मान से बड़ा नहीं हो सकता।” यह फैसला तमाम धर्मों के अनुयायियों, विशेषकर Muslim Identity के पैरोकारों को समानता का नया आयाम देता है।

विशेषज्ञों की राय: Muslim Identity बनाम राष्ट्रीय पहचान

दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रो. अंसार अशरफ़ का कहना है, “राष्ट्रीयता कोई ड्रेस‑कोड नहीं; यह संवैधानिक निष्ठा है। Muslim Identity व्यक्ति की निजी सांस्कृतिक परत है—दोनों को टकराव की बजाय समृद्ध समावेशन में देखना चाहिए।”

आगे की राह: युवा पीढ़ी और Muslim Identity

देश की कुल आबादी में 14% मुस्लिम युवा हैं। रोज़गार, शिक्षा और सोशल मीडिया के ज़रिए वे नई नस्लीय बातचीत रच रहे हैं। कर्नाटक के इंजीनियर फ़ारिस खान बताते हैं, “कोडिंग दफ़्तर में merit ही चलती है। पर जब जुमे की नमाज़ की बात आती है, तो Muslim Identity और कॉर्पोरेट कल्चर का तालमेल अब भी चुनौती है।”

समावेशी नीतियाँ क्यों ज़रूरी?

विश्लेषकों के मुताबिक, विश्वविद्यालय‑स्तर पर “इंटर‑फेथ संवाद” जैसी पहलें और सरकारी नौकरियों में समय‑बद्ध धार्मिक ब्रेक नीतियाँ अपनाकर Muslim Identity का सम्मान किया जा सकता है। साथ ही, नागरिकों को चाहिए कि “रिलिजन शेमिंग” जैसे व्यवहार की सार्वजनिक तौर पर निंदा करें।

फारूक अब्दुल्ला का बयान महज़ राजनीतिक अंक‑गणित नहीं, बल्कि उस गहरे असमंजस का आईना है, जहाँ Muslim Identity अक्सर भारतीयता के प्रमाण‑पत्र की तलाश में ख़ुद को विस्थापित महसूस करती है। लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में मीडिया और जागरूक नागरिक जब तक राष्ट्रवाद के बहुलतावादी स्‍वरूप को स्वीकृति नहीं देंगे, “तिलक‑टोपी” की बहस यूँ ही लौट‑लौट कर आती रहेगी। इसीलिए ज़रूरत है कि “सबका विश्वास” को नारे से आगे ले जाकर व्यवहार में बदला जाए, ताकि हर Muslim Identity बिना तमगा लगाए अपने हिंदुस्तानी होने पर गर्व कर सके।

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