हाइलाइट्स
- Multilateral World — ईरान-इज़राइल युद्ध ने भारत के Multilateral World दृष्टिकोण को गंभीर चुनौती दी है।
- भारत के सामने ईरान और इसराइल के बीच संतुलन साधने की कूटनीतिक चुनौती।
- चाबहार पोर्ट से लेकर पश्चिम एशिया के शांति प्रयासों तक, भारत के हित दांव पर।
- अमेरिका-इसराइल गठबंधन के साथ जुड़ाव, लेकिन ईरान से दूर जाने के नतीजे।
- बहुध्रुवीय दुनिया की अवधारणा क्या केवल एक आदर्श बनकर रह जाएगी?
भारत की विदेश नीति वर्षों से संतुलन, रणनीतिक स्वायत्तता और बहुध्रुवीयता की मिसाल रही है। लेकिन जैसे-जैसे पश्चिम एशिया की स्थिति और भी विस्फोटक होती जा रही है, यह सवाल फिर से उठ खड़ा हुआ है—क्या भारत अब भी Multilateral World के सपने को साकार करने की स्थिति में है या यह आदर्श अब जमीनी सच्चाइयों के नीचे दबता जा रहा है?
ईरान-इसराइल युद्ध: भारत के लिए एक और कूटनीतिक अग्निपरीक्षा
ईरान और इसराइल के बीच चल रही सैन्य झड़पों में अब केवल रॉकेट और ड्रोन नहीं उड़ रहे, बल्कि उसके प्रभाव की गूंज भारत की विदेश नीति में भी सुनाई दे रही है। भारत ने वर्षों तक इस क्षेत्र में Multilateral World की नीति अपनाई, लेकिन अब समय आ गया है कि वह स्पष्ट रुख अपनाए या रणनीतिक अस्पष्टता को ही नीति माने।
भारत की स्थिति क्यों उलझी हुई है?
भारत ने 1950 में ईरान से राजनयिक संबंध स्थापित किए थे। वही ईरान जो अब अमेरिका विरोध का प्रमुख चेहरा बन चुका है। दूसरी ओर, 1992 में भारत ने इज़राइल से भी औपचारिक कूटनीतिक संबंध जोड़े—जो कि आज रक्षा और तकनीकी क्षेत्र में भारत का विश्वसनीय साझेदार बन चुका है।
इस दोतरफा रणनीति के केंद्र में था भारत का Multilateral World का विश्वास, जिसमें वह अमेरिका, रूस, चीन, ईरान और इसराइल सभी से रिश्ते रखने की कोशिश करता रहा है। लेकिन आज की जमीनी स्थिति यह है कि यह संतुलन एक तीव्र झटके के मुहाने पर खड़ा है।
Multilateral World: आदर्श या विफल सपना?
Multilateral World की परिकल्पना का तात्पर्य है कि कोई एक शक्ति विश्व की दिशा तय न करे। भारत की यह नीति हमेशा रही कि अमेरिका, चीन, रूस, यूरोप, और पश्चिम एशिया के साथ अपने हितों के आधार पर स्वतंत्र निर्णय ले। लेकिन आज जब इसराइल को अमेरिका का खुला समर्थन मिल रहा है और ईरान को वैश्विक मंच पर उपेक्षा झेलनी पड़ रही है, तब यह प्रश्न उठता है—क्या वास्तव में यह बहुध्रुवीयता अभी अस्तित्व में है?
SCO और भारत का तटस्थ रुख
भारत ने हाल ही में शंघाई सहयोग संगठन (SCO) की उस घोषणा से दूरी बनाई जिसमें इज़राइल की आलोचना की गई थी। इसका सीधा अर्थ यही निकाला गया कि भारत अब पूरी तरह अमेरिका और उसके सहयोगी इज़राइल के खेमे की ओर झुक रहा है। यह स्थिति उस Multilateral World अवधारणा के खिलाफ जाती है जिसका भारत वर्षों से समर्थन करता रहा है।
चाबहार पोर्ट: रणनीतिक मोर्चे पर भारत की कमजोरी?
ईरान स्थित चाबहार पोर्ट भारत के लिए मध्य एशिया और अफगानिस्तान तक पहुंच का सबसे कारगर जरिया है। पाकिस्तान को बायपास कर वहां पहुंचने का भारत के पास कोई दूसरा व्यावहारिक रास्ता नहीं है। लेकिन ईरान पर लगे अमेरिकी प्रतिबंधों के चलते भारत का निवेश यहां लगातार घटता गया है।
यदि भारत इस संघर्ष में तटस्थता नहीं दिखाता या ईरान से दूरी बना लेता है, तो वह अपना एकमात्र पश्चिमी दरवाजा खो देगा। यह Multilateral World दृष्टिकोण को एक और करारा झटका देगा।
घरेलू राजनीति और विदेश नीति की टकराहट
पूर्व एनएसए शिवशंकर मेनन और पूर्व राजदूत तलमीज अहमद जैसे विशेषज्ञ मानते हैं कि भारत की विदेश नीति पर अब घरेलू राजनीतिक प्राथमिकताओं का असर बढ़ गया है। इसराइल के साथ संबंधों को बढ़ावा देना और ईरान से दूरी बनाना, कहीं न कहीं, देश के भीतर बहुसंख्यकवादी राजनीतिक संदेश के तहत भी देखा जा सकता है।
लेकिन सवाल उठता है—क्या विदेशी नीति को भी घरेलू लोकप्रियता के तराजू पर तौला जाना चाहिए, खासकर जब भारत Multilateral World जैसी वैश्विक अवधारणाओं का झंडाबरदार रहा हो?
वैश्विक ध्रुवीकरण और भारत का संतुलन
आज की दुनिया धीरे-धीरे दो ध्रुवों में बंट रही है—एक ओर अमेरिका, यूरोप और इसराइल का गुट; दूसरी ओर रूस, चीन और ईरान का धड़ा। भारत अब तक इन दोनों के बीच संतुलन साधता आया है, लेकिन अगर यह संघर्ष लंबा चलता है तो उसे किसी एक पक्ष का समर्थन करना ही होगा।
यह समर्थन केवल कूटनीतिक न होकर सामरिक और आर्थिक भी होगा, जो भारत के Multilateral World रुख को गंभीर रूप से प्रभावित करेगा।
विशेषज्ञों की राय: नीति या भ्रम?
जेएनयू के प्रोफेसर अश्विनी महापात्रा कहते हैं कि अगर भारत इस समय रणनीतिक संतुलन नहीं साध सका, तो इसका प्रभाव आने वाले दशकों तक पड़ेगा। बहुध्रुवीय दुनिया की आशा भारत जैसे देशों के लिए एक ढाल की तरह थी, लेकिन अब यह ढाल कमजोर पड़ती दिख रही है।
इतिहास भारत की दिशा तय करेगा
अब भारत के पास दो ही रास्ते हैं—या तो वह एक पक्ष चुने और उसके साथ पूरी तरह खड़ा हो, या फिर अपने मूलभूत Multilateral World दृष्टिकोण को पुनर्स्थापित करे। यह निर्णय केवल रणनीतिक नहीं, ऐतिहासिक भी होगा। दुनिया भारत को किस रूप में याद रखेगी—एक स्वतंत्र, संतुलनकारी वैश्विक शक्ति के रूप में, या केवल एक और सहयोगी राष्ट्र के रूप में जो किसी महाशक्ति की छांव में पनपता है?