हाइलाइट्स
- लिपुलेख दर्रा को लेकर भारत ने नेपाल की आपत्तियों को सख्ती से खारिज किया
- विदेश मंत्रालय ने कहा – नेपाल के दावे ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित नहीं
- भारत-चीन ने तीन व्यापारिक बिंदुओं के जरिए सीमा व्यापार बहाल करने पर सहमति जताई
- नेपाल ने कहा – यह क्षेत्र उसका है, भारत-चीन दोनों से जताई आपत्ति
- कोविड महामारी और अन्य कारणों से बंद हुआ था सीमा व्यापार, अब फिर से शुरू होगा
भारत-चीन संबंधों में हाल ही में एक अहम घटनाक्रम सामने आया है। लिपुलेख दर्रा के रास्ते दोनों देशों ने सीमा व्यापार को पुनः शुरू करने का फैसला किया है। इस फैसले पर नेपाल ने कड़ा ऐतराज जताया, लेकिन भारत ने स्पष्ट कर दिया कि नेपाल के दावे न तो उचित हैं और न ही ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित। विदेश मंत्रालय ने साफ कहा कि लिपुलेख दर्रा भारत का हिस्सा है और दशकों से यहां से भारत-चीन सीमा व्यापार होता आया है।
नेपाल की आपत्तियां और भारत का जवाब
नेपाल का दावा
नेपाल के विदेश मंत्रालय ने हाल ही में बयान जारी कर कहा कि लिपुलेख दर्रा उसका हिस्सा है। उसने भारत से अनुरोध किया कि इस क्षेत्र में सड़क निर्माण, विस्तार और सीमा व्यापार जैसी गतिविधियां न की जाएं। साथ ही नेपाल ने चीन को भी यह संदेश दिया कि यह क्षेत्र उसकी सीमा में आता है।
भारत की प्रतिक्रिया
भारत के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रणधीर जायसवाल ने कहा कि लिपुलेख दर्रा से भारत-चीन सीमा व्यापार 1954 में शुरू हुआ था और दशकों से जारी है। कोविड महामारी और अन्य कारणों से यह बाधित हुआ, लेकिन अब इसे फिर से खोला जा रहा है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि नेपाल के क्षेत्रीय दावे कृत्रिम और अस्वीकार्य हैं।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
दर्रे का महत्व
लिपुलेख दर्रा उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले में स्थित है। यह न केवल भारत-चीन व्यापार का पुराना मार्ग है बल्कि धार्मिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि कैलाश मानसरोवर यात्रा इसी रास्ते से होकर गुजरती है।
भारत-नेपाल विवाद
नेपाल 2020 से इस क्षेत्र पर दावा जताता आ रहा है। नेपाल ने उस वर्ष नया राजनीतिक नक्शा जारी कर लिपुलेख दर्रा, कालापानी और लिम्पियाधुरा को अपने क्षेत्र का हिस्सा बताया था। भारत ने उस समय भी नेपाल के इस कदम को खारिज किया था और कहा था कि यह दावा ऐतिहासिक तथ्यों और संधियों पर आधारित नहीं है।
भारत-चीन के बीच व्यापार समझौता
तीन मार्गों से व्यापार
हाल ही में चीनी विदेश मंत्री वांग यी की भारत यात्रा के दौरान दोनों देशों ने तीन निर्दिष्ट व्यापारिक मार्गों – लिपुलेख दर्रा, शिपकी ला और नाथू ला – से सीमा व्यापार फिर से शुरू करने पर सहमति जताई।
समझौते की अहमियत
इस समझौते से न केवल व्यापारिक गतिविधियों को बढ़ावा मिलेगा बल्कि दोनों देशों के बीच आपसी विश्वास बहाली का रास्ता भी खुलेगा। विशेषज्ञ मानते हैं कि यह कदम सीमावर्ती इलाकों के विकास और स्थानीय लोगों की आर्थिक स्थिति सुधारने में मददगार होगा।
नेपाल की कूटनीतिक रणनीति
कूटनीतिक बयान
नेपाल ने कहा कि वह भारत और चीन दोनों से ऐतिहासिक संधियों और मानचित्रों के आधार पर अपने दावे को मान्यता देने की अपेक्षा रखता है। काठमांडू ने यह भी दोहराया कि वह भारत से मित्रतापूर्ण संबंध बनाए रखना चाहता है लेकिन सीमा विवाद पर पीछे हटने वाला नहीं है।
क्षेत्रीय राजनीति पर असर
विशेषज्ञों का कहना है कि नेपाल का लगातार लिपुलेख दर्रा पर दावा जताना उसकी आंतरिक राजनीति से भी जुड़ा हुआ है। वहां की सरकार अक्सर राष्ट्रीयता के मुद्दों को उठाकर घरेलू समर्थन हासिल करने की कोशिश करती है।
भारत का कड़ा रुख
बातचीत की पेशकश
भारत ने यह जरूर कहा कि वह सीमा विवाद जैसे संवेदनशील मुद्दों को वार्ता और कूटनीति के माध्यम से हल करने के लिए तैयार है। लेकिन साथ ही उसने दोहराया कि एकतरफा क्षेत्रीय दावों को मान्यता नहीं दी जा सकती।
रणनीतिक महत्व
लिपुलेख दर्रा भारत के लिए केवल व्यापारिक मार्ग ही नहीं बल्कि सामरिक दृष्टि से भी बेहद महत्वपूर्ण है। यह इलाका भारत की उत्तरी सीमाओं की सुरक्षा और चीन से संबंधों के लिए अहम भूमिका निभाता है।
लिपुलेख दर्रा पर भारत और नेपाल का विवाद नया नहीं है, लेकिन चीन के साथ भारत द्वारा सीमा व्यापार फिर से शुरू करने के फैसले ने इसे एक बार फिर सुर्खियों में ला दिया है। भारत ने जहां नेपाल के दावों को सिरे से खारिज किया है, वहीं काठमांडू अब भी अपने दावे पर अड़ा है। आने वाले समय में यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या यह विवाद बातचीत से सुलझ पाता है या फिर यह दोनों पड़ोसी देशों के रिश्तों में और तनाव पैदा करेगा।