हाइलाइट्स
- Film Industry में OBC, SC, ST समुदायों के प्रतिनिधित्व पर क्रांति कुमार का बड़ा आरोप
- X (पूर्व Twitter) पर पोस्ट कर कहा—फिल्मी पात्रों में सवर्ण सरनेम का वर्चस्व
- अमिताभ बच्चन से लेकर शाहरुख खान तक, सभी प्रमुख किरदार सवर्ण पृष्ठभूमि से
- दलित और पिछड़े समाज के नामों की फिल्मों में स्पष्ट अनुपस्थिति
- सामाजिक न्याय की बहस को फिल्मी दुनिया तक ले जाने की मांग तेज़
“Film Industry” में ब्राह्मणवाद? क्रांति कुमार ने उठाए बड़े सवाल, बोले– फिल्मों में सिर्फ सवर्ण नाम क्यों?
नई दिल्ली। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म X (पूर्व में Twitter) पर एक पोस्ट ने हिंदी Film Industry में जातिगत वर्चस्व को लेकर नई बहस छेड़ दी है। सामाजिक कार्यकर्ता और लेखक क्रांति कुमार ने एक विस्तृत पोस्ट में यह दावा किया कि हिंदी फिल्मों में OBC, SC और ST समुदायों के नाम और पहचान को जानबूझकर दरकिनार किया गया है, ताकि सवर्णों की hegemony (वर्चस्व) फिल्म जगत में बनी रहे।
उनका तर्क है कि फिल्मों में जो भी नायक या प्रमुख पात्र होते हैं, उनके नाम और सरनेम प्रायः मल्होत्रा, खन्ना, कपूर, माथुर, वर्मा, सिंह जैसे होते हैं, जो सामान्यतः ब्राह्मण, क्षत्रिय या बनिया वर्ग से आते हैं। उन्होंने इसे एक सांस्कृतिक षड्यंत्र करार दिया।
क्रांति कुमार की पोस्ट में क्या कहा गया?
क्रांति कुमार ने अपने पोस्ट में लिखा:
“सवर्णों ने फ़िल्म इंडस्ट्री में OBC SC ST को काम नहीं देकर अपनी HEGEMONY को बरकरार रखा। एक दूसरा तरीका भी अपनाया ताकि सामाजिक व्यवस्था में भी उनकी HEGEMONY बरकरार रहे। फिल्मों का हर कैरेक्टर सवर्ण पृष्ठभूमि का लिखा गया।”
उन्होंने उदाहरण स्वरूप अमिताभ बच्चन और शाहरुख खान के लोकप्रिय किरदारों का उल्लेख करते हुए कहा कि:
- अमिताभ को बनाया गया: विजय मल्होत्रा, अर्जुन सिंह, अमित कपूर
- शाहरुख को दिखाया गया: राज माथुर, राहुल खन्ना, अजय शर्मा
इसके बाद उन्होंने सवाल उठाया कि “आपको फिल्मों में कुशवाहा, यादव, पासवान, मांझी, मौर्य जैसे नाम क्यों नहीं मिलते?”
क्या वाकई Film Industry में नामों का जातीय चयन होता है?
यह प्रश्न वर्षों से समाजशास्त्रियों और सिनेमा आलोचकों के बीच चर्चा का विषय रहा है। हिंदी Film Industry में जाति को प्रत्यक्ष रूप से शायद ही कभी स्वीकारा गया हो, लेकिन फिल्मी नामों और पात्रों की पृष्ठभूमि में ब्राह्मणवादी झुकाव को लेकर कई बार आलोचना होती रही है।
- अभिनेता धर्मेंद्र, जिनकी जाति जाट है, को ‘वीर’ या ‘धर्मवीर’ जैसे गैर-जातीय किरदारों में रखा गया
- ओम पुरी, स्मिता पाटिल, संजय मिश्रा जैसे कलाकारों ने भूमिकाएं तो निभाईं, पर वे मुख्यधारा के नायक नहीं बने
- दलित पात्रों को प्रायः अत्याचार सहने या क्रांतिकारी स्वरूप में ही चित्रित किया गया, लेकिन उन्हें रोमांटिक या एक्शन नायक के रूप में शायद ही दिखाया गया
फिल्मों में सरनेम के पीछे का सांस्कृतिक एजेंडा?
क्रांति कुमार के इस आरोप ने कई पुराने सवालों को फिर से ज़िंदा कर दिया है:
- क्यों नायक का नाम राज मल्होत्रा या विजय वर्मा ही होता है?
- क्यों नायिकाओं के लिए पूजा शर्मा, प्रियंका कपूर, साक्षी मेहरा जैसे नाम चुने जाते हैं?
- क्यों Film Industry में पटेल, यादव, मौर्य, पासवान या निषाद जैसे सरनेम नहीं दिखते?
विशेषज्ञों का मानना है कि ये नाम दर्शकों को “सामाजिक रूप से स्वीकार्य” और “शक्तिशाली” प्रतीत होते हैं, जबकि पिछड़ी जातियों से जुड़े नामों को ‘ग्रामीण’, ‘कमज़ोर’ या ‘नकारात्मक’ छवि के रूप में दिखाया जाता है।
सवर्णों ने फ़िल्म इंडस्ट्री में OBC SC ST को काम नही देकर अपनी HEGEMONY को बरकरार रखा
और एक दूसरा तरीका भी अपनाया ताकि सामाजिक व्यवस्था में भी उनकी HEGEMONY बरकरार रहे.
फिल्मों का हर कैरेक्टर सवर्ण पृष्ठभूमि का लिखा गया. एक्शन रोमांस ड्रामा और बलिदान करने वाला हर कैरेक्टर… pic.twitter.com/EiDlBtiHLE
— Kranti Kumar (@KraantiKumar) July 6, 2025
दलित और पिछड़े समाज की पहचान का संकट
Film Industry में representation की यह बहस सिर्फ नामों तक सीमित नहीं है। पिछड़े और दलित कलाकारों को न तो पर्याप्त स्क्रीन स्पेस मिलता है और न ही वे प्रोडक्शन और निर्देशन जैसे निर्णयात्मक पदों तक पहुँच पाते हैं।
- बॉलीवुड में OBC निर्देशकों की संख्या नगण्य है
- स्क्रिप्ट राइटर, कास्टिंग डायरेक्टर और निर्माता भी अक्सर upper caste पृष्ठभूमि से होते हैं
- जब भी दलित किरदार आता है, तो या तो उसे ‘पीड़ित’ दिखाया जाता है, या फिर ‘क्रांतिकारी’—एक संतुलित मानवीय चित्रण बहुत कम होता है
सोशल मीडिया पर समर्थन और विरोध दोनों
क्रांति कुमार की इस पोस्ट को कुछ ही घंटों में हजारों रीट्वीट मिले। Dalit Lives Matter, Ambedkarite Youth और Bahujan Thinkers जैसे पेजों ने इस मुद्दे को समर्थन दिया।
वहीं कुछ ने इसे ‘identity politics’ कहकर खारिज भी किया और कहा कि “फिल्मों के किरदार कल्पनाओं से बनते हैं, न कि जाति सूची से।”
क्या बदल रही है Film Industry?
हाल के वर्षों में कुछ फिल्में इस असंतुलन को तोड़ने की कोशिश करती दिखी हैं:
- ‘Article 15’, ‘Jai Bhim’, ‘Sairat’ जैसी फिल्में जातिगत मुद्दों को केंद्र में लाईं
- मराठी सिनेमा, तमिल इंडस्ट्री में दलित निर्देशकों का बोलबाला बढ़ा
- OTT प्लेटफॉर्म्स पर भी विविधता बढ़ रही है, लेकिन हिंदी Film Industry में यह परिवर्तन अभी सीमित है
क्रांति कुमार ने Film Industry की उस परत को उधेड़ा है, जिसे लंबे समय से नजरअंदाज किया जाता रहा है—जातिगत पहचान और सांस्कृतिक वर्चस्व की परत। जब तक फिल्मों में सभी वर्गों को बराबरी से नायक बनने का अधिकार नहीं मिलेगा, तब तक यह माध्यम पूर्ण रूप से लोकतांत्रिक नहीं कहा जा सकता।
Film Industry को अगर असली भारत दिखाना है, तो उसे विजय मल्होत्रा से आगे बढ़कर विजय कुशवाहा, राज मौर्य और राहुल पासवान जैसे किरदार भी गढ़ने होंगे।