हाइलाइट्स
- Korba Land Protest ने एक बार फिर से देश का ध्यान आदिवासी भूमि अधिकारों की अनदेखी पर केंद्रित किया।
- कोरबा के कुसमुंडा क्षेत्र में अर्धनग्न होकर सड़क पर उतरीं महिलाओं ने रोजगार और मुआवज़े की मांग उठाई।
- प्रदर्शनकारी महिलाओं ने SECL पर वादाखिलाफी का आरोप लगाया और तत्काल रोजगार देने की माँग रखी।
- स्थानीय प्रशासन की सुस्ती ने विरोध को और उग्र बना दिया, जिसके कारण पुलिस बल तैनात करना पड़ा।
- विशेषज्ञों का मानना है कि यह आंदोलन पूरे प्रदेश में भूमि संघर्ष के लिए मिसाल बन सकता है।
Korba Land Protest: विरोध की पृष्ठभूमि
छत्तीसगढ़ के कोरबा ज़िले में जमीनों का अधिग्रहण नई बात नहीं है। कोयला खनन, बिजली परियोजनाओं और औद्योगिक विस्तार के लिए दशकों से लाखों हेक्टेयर भूमि ली जाती रही है। इस प्रक्रिया में सर्वाधिक प्रभावित हुई हैं स्थानीय आदिवासी महिलाएँ, जिनके लिए जमीन केवल जीविकोपार्जन का साधन ही नहीं, सांस्कृतिक पहचान का आधार भी है। Korba Land Protest का बीज उन्हीं पुराने जख्मों में छिपा है। वर्ष 2023 में प्रकाशित एक विस्तृत रिपोर्ट के अनुसार, कोरबा में विस्थापन विरोधी आंदोलन लगातार तेज़ हो रहे थे, किंतु 18 जुलाई 2025 को…
भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया
अधिग्रहित जमीनों के बदले लोगों को कानूनन मुआवज़ा, पुनर्वास और रोजगार देना अनिवार्य है, लेकिन वास्तविकता बिल्कुल भिन्न है। कई परिवारों को अब तक आधा मुआवज़ा भी नहीं मिला। दूसरी ओर, Korba Land Protest के केंद्र में रही SECL परियोजना के तहत 2019 में ही रोजगार के आश्वासन दिए गए थे, पर अमल आज तक नहीं हुआ।
नौकरी का वादा और हकीकत
स्थानीय ग्राम सभाओं में अधिकारियों ने “एक परिवार, एक नौकरी” का वचन दिया था। इस वादे ने ग्रामीणों को घर-बार छोड़ने के लिये मनाया। जब वादा अधूरा रह गया, तो Korba Land Protest का उबाल फूटना तय था।
छत्तीसगढ़ के कोरबा में आदिवासी महिलाओं को अर्धनग्न होकर सड़क पर उतरना पड़ा क्योंकि सरकार ने उनकी ज़मीन छीन ली, लेकिन बदले में न उन्हें नौकरी दी गई, न मुआवज़ा और न ही कोई इंसाफ़। यह हालात बहुत दुखद और शर्मनाक हैं। जब किसी को अपने हक़ के लिए इस तरह सड़कों पर उतरना पड़े, तो यह… pic.twitter.com/2P79Mn7T2p
— Tribal Army (@TribalArmy) July 19, 2025
अर्धनग्न प्रदर्शन क्यों बना Korba Land Protest का प्रतीक?
18 जुलाई 2025 की सुबह कुसमुंडा की करीब 150 महिलाएँ पारंपरिक वस्त्रों का ऊपरी हिस्सा त्याग कर सड़क पर बैठ गईं। यह दृश्य चेतावनी था कि सम्मान से बड़ा कोई वस्त्र नहीं। प्रदर्शनकारियों का दावा है कि प्रशासन को बार-बार ज्ञापन सौंपने के बाद भी जब सुनवाई नहीं हुई तो यह अंतिम हथियार चुना गया। मीडिया में वायरल हुए इस दृश्य ने न सिर्फ छत्तीसगढ़, बल्कि राष्ट्रीय राजधानी तक हलचल मचा दी। Korba Land Protest की यह तस्वीर सोशल मीडिया पर लाखों बार साझा की गई।
Korba Land Protest और सरकारी पक्ष
राज्य सरकार ने दावा किया कि विस्थापित परिवारों को मुआवज़ा और रोज़गार देने की प्रक्रिया चल रही है। मगर ज़मीनी हक़ीक़त अलग है। जिला कलेक्टर ने प्रेस वार्ता में स्वीकारा कि “कई औपचारिकताएँ लंबित हैं”; वहीं SECL प्रवक्ता ने कहा कि “हम सोशल ऑडिट करा रहे हैं।” लेकिन Korba Land Protest के दौरान महिलाओं ने स्पष्ट कहा, “हमारी भूख सोशल ऑडिट से नहीं मिटेगी।”
प्रशासनिक ढिलाई
सूत्रों का कहना है कि परियोजना प्रभावित 3,200 परिवारों में से केवल 700 को ही स्थायी नौकरी मिली। बाकी के लिए अस्थाई अनुबंध भी नहीं बने। यही असमानता Korba Land Protest का मूल कारण बनी।
राजनीतिक प्रतिक्रियाएँ
प्रदर्शन के तुरंत बाद विपक्षी दलों ने विधानसभा में मामला उठाया, जबकि सत्तारूढ़ दल ने जांच समिति गठित करने की घोषणा की। एक विधायक ने विधान सभा में कहा, “यदि Korba Land Protest को नज़रअंदाज़ किया गया, तो प्रदेश भर में असंतोष भड़केगा।”
Korba Land Protest के सामाजिक-आर्थिक असर
अर्थशास्त्रियों के अनुसार, लंबा खिंचने वाला आंदोलन इलाके के पहले से जर्जर रोज़गार बाजार पर और दबाव डालेगा। खनन क्षेत्र में उत्पादन रुकने से सरकारी राजस्व प्रभावित होगा, पर विशेषज्ञ मानते हैं कि सामाजिक न्याय की अनदेखी की कीमत इससे कहीं अधिक होगी। सामाजिक कार्यकर्ता राधिका पांडेय कहती हैं, “Korba Land Protest हमें याद दिलाता है कि विकास तभी टिकाऊ है जब वह न्यायसंगत हो।”
महिलाओं की नेतृत्व भूमिका
ऐतिहासिक रूप से आदिवासी आंदोलनों में महिलाओं की भागीदारी ऊपरी पंक्ति में कम रही है, लेकिन Korba Land Protest ने यह मिथक तोड़ दिया। ग्रामीण शिक्षिका बसंती बाई के शब्दों में, “जब पेट खाली है, तो शर्म कोई मायने नहीं रखती।”
युवा पीढ़ी की चिंताएँ
कॉलेज छात्र शिवराज कंवर बताते हैं कि उनकी पीढ़ी रोज़गार के लिए शहरों की ओर पलायन कर रही है। यदि Korba Land Protest सफल नहीं होता, तो यह पलायन स्थायी रूप ले सकता है।
विधि विशेषज्ञों का मत: क्या Korba Land Protest लाएगा न्याय?
क़ानून विशेषज्ञ सुप्रिया द्विवेदी का मानना है कि वनाधिकार अधिनियम 2006 और भूमि अधिग्रहण अधिनियम 2013 विस्थापितों को पर्याप्त संरक्षण देते हैं; बशर्ते इनका पालन हो। उनका तर्क है कि यदि Korba Land Protest की दलीलें न्यायालय तक पहुँचीं, तो मुआवज़े और पुनर्वास के आदेश अनिवार्य हो सकते हैं।
न्यायिक नज़ीरें
उड़ीसा के पॉस्को प्रकरण और महाराष्ट्र के नानो नदी बचाओ आंदोलन जैसी मिसालें बताती हैं कि संगठित विरोध का असर न्यायिक फैसलों पर पड़ता है। विशेषज्ञों का तर्क है कि यदि Korba Land Protest भी संगठित रहा, तो कानूनी जीत मुमकिन है।
आगे का रास्ता: Korba Land Protest से निकले सबक
आंदोलनकारी महिलाओं ने दो दिनों का अल्टीमेटम दिया है—यदि रोजगार पत्र नहीं दिए गए, तो वे रायपुर तक पदयात्रा करेंगी। प्रशासन के सामने विकल्प स्पष्ट हैं: या तो समयबद्ध पुनर्वास योजना लागू करे, या Korba Land Protest को और भड़कने दे। एक संवाददाता के रूप में मैं देख रहा हूँ कि यह घटना केवल कोरबा का मसला नहीं रह गई है; यह राष्ट्रीय विकास मॉडल को आईना दिखाने वाली घटना बन गई है।
Korba Land Protest ने साबित कर दिया कि जब वादों पर अमल नहीं होता, तो हाशिए पर खड़ा समुदाय भी वे तरीके अपनाता है जिनकी कल्पना मुख्यधारा समाज नहीं करता। यह आंदोलन केवल जमीन और नौकरी का प्रश्न नहीं, बल्कि सम्मान, पहचान और संवैधानिक अधिकारों की माँग है।