हाइलाइट्स
जेपीएससी परीक्षा पास करने वाले युवाओं की संघर्षभरी कहानियां आईं सामने
बबीता पहाड़िया बनीं पहली पहाड़िया महिला अधिकारी, मिठाई के पैसे नहीं थे
सूरज यादव ने स्विगी डिलीवरी बॉय बनकर पढ़ाई की और बने डिप्टी कलेक्टर
दिव्यांग विष्णु मुंडा ने 9 साल के संघर्ष के बाद पाई सफलता
जेपीएससी परीक्षा ने साबित किया कि मेहनत के आगे हालात हार जाते हैं
जेपीएससी परीक्षा के नतीजों ने दिखाई संघर्ष की जीत की राह
झारखंड में जेपीएससी परीक्षा के नतीजों ने न केवल अफसरों की सूची तैयार की, बल्कि उन युवा सपनों को भी उजागर किया जो गरीबी, अभाव, और सामाजिक बेड़ियों से निकलकर सफलता की ऊंचाइयों तक पहुंचे हैं। इन कहानियों में सिर्फ एक परीक्षा पास करने की बात नहीं है, बल्कि जीवन की कठिन परीक्षा में विजयी होने की प्रेरणादायक मिसालें छिपी हैं।
पहाड़िया जनजाति की बेटी बबीता पहाड़िया: जेपीएससी परीक्षा से अफसरी तक
झारखंड की पहाड़िया जनजाति भारत की अत्यंत पिछड़ी जनजातियों में गिनी जाती है। इस समाज की बेटियां अक्सर शिक्षा से वंचित रहती हैं, लेकिन जेपीएससी परीक्षा ने इस बार इतिहास रच दिया।
बबीता पहाड़िया, जो दुमका जिले की निवासी हैं, जेपीएससी परीक्षा में 337वीं रैंक लाकर अफसर बनीं। उनके पिता एक निजी स्कूल में हेल्पर हैं और मां गृहिणी। चार भाई-बहनों में बड़ी बबीता पर परिवार का आर्थिक दबाव था, लेकिन उन्होंने पढ़ाई नहीं छोड़ी।
जब घरवालों ने शादी का दबाव डाला, तब बबीता ने साफ कहा, “जब तक सरकारी नौकरी नहीं मिलेगी, शादी नहीं करूंगी।” उनकी जिद और मेहनत रंग लाई।
मिठाई के बदले चीनी से मनाई खुशी
जब जेपीएससी परीक्षा का परिणाम आया, तो घर में मिठाई लाने के भी पैसे नहीं थे। बबीता की मां ने चीनी खिलाकर पूरे मोहल्ले को मिठास बांटी।
बबीता अब अपने समुदाय के लिए काम करना चाहती हैं ताकि पहाड़िया समाज की अन्य लड़कियों को भी पढ़ने और बढ़ने का अवसर मिले।
स्विगी से अफसरी की डिलीवरी: सूरज यादव की कहानी
गिरिडीह के कपिलो गांव के सूरज यादव की कहानी जेपीएससी परीक्षा में सफलता की सबसे प्रेरणादायक कहानियों में से एक है।
उनके पिता राजमिस्त्री हैं और घर की हालत डांवाडोल। पढ़ाई जारी रखने के लिए सूरज ने रांची में स्विगी डिलीवरी बॉय और रैपिडो राइडर की नौकरी की।
बाइक खरीदने के लिए पैसे नहीं थे, तो दोस्तों राजेश और संदीप ने स्कॉलरशिप के पैसे दिए। सूरज ने दिन में 5 घंटे डिलीवरी की और बाकी समय पढ़ाई में बिताया।
डिलीवरी बॉय से डिप्टी कलेक्टर तक
जेपीएससी परीक्षा के इंटरव्यू में सूरज ने बोर्ड को बताया कि वे डिलीवरी बॉय हैं। बोर्ड ने तकनीकी सवाल पूछे ताकि वे जान सकें कि सूरज सच कह रहे हैं या नहीं। लेकिन सूरज ने सबका भरोसा जीत लिया। अब वे डिप्टी कलेक्टर बन चुके हैं।
दिव्यांगता भी नहीं रोक सकी विष्णु मुंडा को
रांची के तमाड़ प्रखंड के विष्णु मुंडा का संघर्ष 9 साल लंबा रहा। उन्होंने कई बार जेपीएससी परीक्षा दी लेकिन सफल नहीं हुए। विष्णु जन्म से ही दिव्यांग हैं—उनके शरीर का एक अंग पूरी तरह विकसित नहीं हुआ।
उनकी मां ने गर्भावस्था में ऐसी दवा ली, जिसने विष्णु की शारीरिक बनावट पर असर डाला। परिवार में आज भी दो वक्त की रोटी के लिए संघर्ष है। पिता दिन में मजदूरी और रात में गार्ड की नौकरी करते हैं।
आदिवासी हॉस्टल में रहकर की तैयारी
विष्णु ने हॉस्टल में रहकर ट्यूशन पढ़ाया और पढ़ाई जारी रखी। आखिरकार 9 साल बाद जब सुबह 4 बजे उन्हें जेपीएससी परीक्षा के परिणाम की खबर मिली, तो उनकी आंखों से आंसू बह निकले। वो आंसू हार के नहीं, जीत के थे।
हर कहानी में समानता: संघर्ष, समर्पण और सफलता
इन सभी कहानियों में एक कॉमन धागा है—संघर्ष, समर्पण और जेपीएससी परीक्षा की बदौलत मिली सफलता। न कोई कोचिंग, न मोटा पैसा, फिर भी इन युवाओं ने वह कर दिखाया जो किसी चमत्कार से कम नहीं।
जेपीएससी परीक्षा का व्यापक प्रभाव
जेपीएससी परीक्षा सिर्फ एक अफसर बनने का जरिया नहीं, बल्कि यह झारखंड के दूर-दराज इलाकों से निकलकर मुख्यधारा में आने का जरिया बन गई है।
- यह परीक्षा उन लोगों के लिए आशा की किरण है जिनके पास संसाधन नहीं हैं।
- यह सफलता का वह पुल है जो गरीबी और सम्मान के बीच की खाई को पाटता है।
- यह हौसलों की परीक्षा है, जिसमें सफल वही होते हैं जो हालात से नहीं डरते।
जेपीएससी परीक्षा की इन कहानियों ने साबित किया है कि अभाव में पली-बढ़ी प्रतिभाएं भी सितारों की तरह चमक सकती हैं। ये कहानियां सिर्फ आज के युवाओं के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे समाज के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं।