हाइलाइट्स
- जबरन गर्भनिरोधक: डेनमार्क में ग्रीनलैंड की 350 से अधिक महिलाओं और किशोरियों को बिना सहमति जबरन गर्भनिरोधक दिए गए।
- 1960 से 1991 के बीच स्वास्थ्य अधिकारियों ने आईयूडी और हार्मोनल इंजेक्शन का इस्तेमाल किया।
- कई पीड़िताओं ने संक्रमण, रक्तस्राव और मानसिक आघात जैसी गंभीर समस्याओं की शिकायत की।
- अगस्त 2025 में डेनमार्क और ग्रीनलैंड सरकार ने आधिकारिक माफ़ी मांगी।
- 24 सितंबर 2025 को ग्रीनलैंड की राजधानी नुक्क में औपचारिक माफ़ी समारोह होगा।
डेनमार्क और ग्रीनलैंड के बीच ऐतिहासिक विवाद
डेनमार्क और ग्रीनलैंड के रिश्तों पर हमेशा राजनीति और उपनिवेशवाद की छाया रही है। लेकिन हाल ही में उजागर हुआ जबरन गर्भनिरोधक का मामला इस रिश्ते के सबसे अंधेरे पहलुओं में से एक बनकर सामने आया है। 1960 के दशक से लेकर 1991 तक, डेनिश स्वास्थ्य अधिकारियों ने ग्रीनलैंड की 350 से ज्यादा महिलाओं और किशोरियों को उनकी सहमति के बिना गर्भनिरोधक दिए।
नाबालिग लड़कियों को भी बनाया गया शिकार
सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि इस जबरन गर्भनिरोधक कार्यक्रम का शिकार केवल वयस्क महिलाएं नहीं थीं, बल्कि 12 साल या उससे भी कम उम्र की किशोरियाँ भी थीं। उन्हें आईयूडी प्रत्यारोपित किए गए और हार्मोनल इंजेक्शन दिए गए। पीड़िताओं का कहना है कि उन्हें इस प्रक्रिया के बारे में कोई जानकारी नहीं दी गई थी और न ही उनकी अनुमति ली गई थी।
शारीरिक और मानसिक पीड़ा की दास्तान
इन महिलाओं ने बताया कि इस जबरन गर्भनिरोधक अनुभव ने उनके शरीर और मन दोनों को बुरी तरह क्षतिग्रस्त किया। कई महिलाओं को संक्रमण, लगातार रक्तस्राव और प्रजनन क्षमता पर गंभीर असर का सामना करना पड़ा। मानसिक आघात की वजह से उनका सामाजिक जीवन और आत्मविश्वास भी प्रभावित हुआ।
सरकार की माफ़ी और स्वीकारोक्ति
कई दशकों बाद, अगस्त 2025 में डेनमार्क और ग्रीनलैंड की सरकारों ने इस ऐतिहासिक अन्याय के लिए सार्वजनिक तौर पर माफ़ी मांगी। उन्होंने स्वीकार किया कि जबरन गर्भनिरोधक कार्यक्रम एक गंभीर मानवाधिकार उल्लंघन था। इसके साथ ही, 24 सितंबर 2025 को ग्रीनलैंड की राजधानी नुक्क में औपचारिक माफ़ी समारोह आयोजित करने का ऐलान किया गया है।
माफ़ी समारोह का महत्व
यह समारोह केवल औपचारिकता नहीं है, बल्कि पीड़ितों को न्याय और समाज से सम्मान दिलाने का प्रयास है। यह डेनमार्क के इतिहास में एक आत्ममंथन का क्षण भी है, जब वह अपने अतीत की गलतियों को खुलेआम स्वीकार कर रहा है।
जनसंख्या नियंत्रण के नाम पर प्रयोग
इस जबरन गर्भनिरोधक कार्यक्रम की शुरुआत जनसंख्या नियंत्रण की नीति के तहत हुई थी। 1960 के दशक में ग्रीनलैंड में स्वास्थ्य सुविधाओं और जीवन स्तर में सुधार के चलते जनसंख्या तेजी से बढ़ रही थी। डेनमार्क सरकार ने इस बढ़ती जनसंख्या को रोकने के लिए कठोर कदम उठाए। रिपोर्टों के अनुसार, उस समय लगभग 4,500 महिलाओं को आईयूडी लगाए गए थे, जो प्रजनन आयु की ग्रीनलैंड की महिलाओं का लगभग आधा हिस्सा था।
कानूनी लड़ाई और मुकदमे
इस खुलासे के बाद लगभग 150 महिलाओं ने डेनिश सरकार के खिलाफ मानवाधिकार उल्लंघन का मुकदमा दायर किया है। यह मुकदमा अभी भी अदालत में लंबित है। पीड़ितों का कहना है कि जबरन गर्भनिरोधक ने उनके जीवन को अपूरणीय नुकसान पहुंचाया है, और इसके लिए केवल माफ़ी ही पर्याप्त नहीं है।
मुआवज़े की मांग
कई महिलाओं ने मुआवज़े की मांग की है ताकि उनके इलाज और मानसिक स्वास्थ्य सुधार में मदद मिल सके। हालांकि डेनमार्क सरकार ने अभी तक मुआवज़े पर कोई ठोस कदम नहीं उठाया है।
बच्चों को परिवार से अलग करने की नीतियाँ
यह मामला केवल जबरन गर्भनिरोधक तक सीमित नहीं है। डेनमार्क सरकार ने ग्रीनलैंड के बच्चों को उनके माता-पिता से अलग करके डेनिश पालक परिवारों के पास भेजा। इसके अलावा, उन्होंने एक विवादास्पद “पालन-पोषण योग्यता परीक्षण” लागू किया, जिसके कारण कई परिवार टूट गए।
पीड़ितों की आवाज़
ग्रीनलैंड की महिलाएं और किशोरियाँ आज भी अपने दर्दनाक अनुभव को याद करती हैं। वे कहती हैं कि जबरन गर्भनिरोधक ने उनकी पहचान, स्वतंत्रता और मातृत्व की भावना को छीन लिया। एक पीड़िता ने बताया, “मुझे पता भी नहीं था कि मेरे शरीर में क्या डाला जा रहा है। कई सालों बाद मुझे समझ आया कि यह सब मेरे खिलाफ एक साज़िश थी।”
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आलोचना
इस खुलासे के बाद डेनमार्क को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी आलोचना का सामना करना पड़ा है। मानवाधिकार संगठनों का कहना है कि यह मामला आधुनिक इतिहास की सबसे बड़ी जबरन नसबंदी नीतियों में से एक है। कई विशेषज्ञों ने इसे उपनिवेशवादी मानसिकता का हिस्सा बताया है।
भविष्य की राह
डेनमार्क सरकार पर दबाव है कि वह केवल माफ़ी तक सीमित न रहे, बल्कि मुआवज़ा और पुनर्वास की ठोस योजना भी बनाए। ग्रीनलैंड की संसद ने भी मांग की है कि पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए एक विशेष आयोग बनाया जाए।
जबरन गर्भनिरोधक का यह मामला केवल अतीत की एक गलती नहीं है, बल्कि यह सवाल भी उठाता है कि जनसंख्या नियंत्रण या विकास के नाम पर किस हद तक सरकारें इंसानी अधिकारों को कुचल सकती हैं। डेनमार्क और ग्रीनलैंड का यह अध्याय आने वाली पीढ़ियों को यह याद दिलाएगा कि मानवाधिकारों की रक्षा किसी भी समाज की पहली जिम्मेदारी है।