खटिया बनी एम्बुलेंस, नदी बनी मौत की चुनौती: खूंटी में सड़क तो बनी, पर पुल के बिना गर्भवती ने पार की दर्द की धार

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हाइलाइट्स

  • BridgeCrisis ने एक बार फिर ग्रामीण विकास की पोल खोली, गर्भवती महिला को खटिया पर लादकर नदी पार कराना पड़ा
  • प्रसव‑पीड़ा से जूझ रही सुकरु कुमारी को चार ग्रामीणों ने उठाया, तेज बहाव में जान जोखिम पर डाल BridgeCrisis को झेला
  • आदिवासी बहुल इलाके में बनी पक्की सड़कें भी BridgeCrisis के आगे बेमानी, पुल न होने से दर्जनों गांव कटे
  • स्थानीय प्रतिनिधियों ने कई बार डीपीआर भेजे, फिर भी BridgeCrisis की फाइलें दफ्तरों में धूल फांकती रहीं
  • ग्रामीणों ने चेताया—अगर BridgeCrisis खत्म न हुआ तो अगले मॉनसून में जीवन रक्षा मुश्किल, सामूहिक आंदोलन की तैयारी

झारखंड के खूंटी में BridgeCrisis की जमीनी हकीक़त

राजधानी रांची से मुश्किल से 60 किमी दूर खूंटी का अड़की प्रखंड प्रकृति की सुंदरता से भरपूर है, पर वहीं पसरा हुआ BridgeCrisis विकास की चमक पर गहरी दरार डाल देता है। सूत्रीकोलोम गांव के बीच बहती कर्रा नदी दो पक्की सड़कों को महज़ पाँच मीटर के फासले पर रोक देती है। पुल नहीं, तो सड़क भी अधूरी—और यही BridgeCrisis हर बरसात में बेटियों, बुज़ुर्गों और बीमारों की परीक्षा लेता है।

 प्रसव पीड़ा और BridgeCrisis के बीच जंग

सोमवार तड़के चार बजे सुकरु कुमारी को तेज दर्द उठा। पति बिरसा नाग ने 108 एंबुलेंस बुलाने की सोची, पर ऑपरेटर ने कहा—“साहब, नदी का पानी चढ़ा है, हम गांव तक नहीं आ पाएँगे।” गांव वालों ने तय किया कि खटिया ही एंबुलेंस बनेगी। यही वह पल था जब सड़क किनारे चमकती स्ट्रीट‑लाइटें भी BridgeCrisis की दुहाई देती नज़र आईं।

चारपाई बनी एम्बुलेंस—BridgeCrisis का सबसे कड़वा सच

चार ग्रामीण खटिया उठाकर नदी में उतरे। पथरीली तलहटी, ऊपर से बरसाती धारा; लेकिन BridgeCrisis से जूझना मजबूरी थी। आधे घंटे बाद जब वे दूसरी तरफ पहुँचे तो ममता वाहन खड़ा था, पर सुकरु दर्द से अर्ध‑बेहोश। डॉक्टरों ने सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में सुरक्षित प्रसव करा दिया, मगर चेतावनी भी दी—“ऐसे हालात में माँ‑बच्चे की जान कभी भी जा सकती थी। BridgeCrisis का जोखिम दुगना है: वक्त की कमी और संक्रमण का ख़तरा।”

BridgeCrisis क्यों बना स्थायी समस्या?

अड़की बीडीओ कार्यालय के रेकॉर्ड बताते हैं कि 2017 में पुल का प्रस्ताव बना था। ग्रामीण कार्य विभाग से दो बार टीम आई, पर मिट्टी की जाँच और सर्वे के बाद फ़ाइल ठंडी हुई। अधिकारी बदलते रहे, पर BridgeCrisis जस‑का‑तस। परियोजना अधिकारी भूपेंद्र भगत कहते हैं, “पैसा मंज़ूर है, पर ठेकेदार कम बोली नहीं लगाते। नदी का तेज बहाव निर्माण जोखिम बढ़ाता है, इसलिए BridgeCrisis आगे सरकता जाता है।”

अधूरी योजनाएँ और BridgeCrisis की कागजी बाधाएँ

  • डीपीआर पास: 4
  • निविदा रद्द: 3
  • पुनः मूल्यांकन: 2

हर कॉलम के सामने तारीख़ों का ढेर है, लेकिन पुल अब भी सपने में। यही प्रशासनिक भूल‑भुलैया BridgeCrisis को स्थायी बनाती है।

सरकारी आंकड़ों में BridgeCrisis का चेहरा

झारखंड सड़क निर्माण विभाग की ताज़ा रिपोर्ट (2024‑25) बताती है कि राज्य में 1,200 से अधिक पुल निर्माणाधीन हैं। खूंटी में 46 मूलभूत पुलों की सूची बनी, लेकिन 29 तो अभी टेंडर तक नहीं पहुँचे। यही अधूरापन BridgeCrisis को उभार देता है।

PMGSY और BridgeCrisis—योजनाओं का टूटता पुल

प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना के तीसरे चरण में अड़की प्रखंड का नाम तो शामिल है, मगर डीपीआर मांगी गई चौथी बार। विशेषज्ञ मानते हैं कि अगर ‘सड़क के साथ पुल अनिवार्य’ की गाइडलाइन सख्ती से लागू होती, तो BridgeCrisis पैदा ही न होता।

ग्रामीणों की आवाज़—BridgeCrisis पर नेताओं को घेरा

पंचायत भवन के सामने जुटी ग्राम सभा में बुज़ुर्ग छेदी उराँव बोले, “वोट माँगने हर दल की गाड़ी आ जाती है, पर पुल का बोलते ही सब चुप। BridgeCrisis हम जीते‑जी ख़त्म देखना चाहते हैं।” युवाओं ने तय किया कि सोशल मीडिया पर ‘#EndBridgeCrisis’ चलाया जाएगा, ताकि जिला मुख्यालय तक बात पहुँचे।

 सामाजिक संगठनों के कदम और BridgeCrisis का समाधान

लोकल NGO ‘पथरीली आशा’ ने 15 हज़ार हस्ताक्षर जुटाकर दिल्ली भेजने की योजना बनाई है। संस्था प्रमुख अनुज बरला कहते हैं, “पहला प्रोजेक्ट‑क्लेरेंस हुआ तो आगे के BridgeCrisis भी हटेंगे। हमें सामूहिक दबाव बनाना होगा।”

BridgeCrisis से उबरने का रास्ता

खूंटी का यह BridgeCrisis केवल एक पुल की कमी नहीं, बल्कि नीति‑नियत के गहरे अंतर की कहानी है। सड़क‑संगीत तो बज गया, पर बिना पुल ताल अधूरा। जब तक ठेकेदारी, मूल्यांकन और मॉनसून का डर विभागीय बहाने बने रहेंगे, तब तक हर बरसात में कोई न कोई सुकरु कुमारी दर्द के साथ BridgeCrisis भी झेलेगी।

सरकार को चाहिए कि:

  1. BridgeCrisis वाले प्रस्तावों को ‘रेड‑कैटेगरी’ में रखकर त्वरित स्वीकृति दे।
  2. डिज़ाइन‑बिल्ड‑मेन्टेनेंस मॉडल अपनाए, ताकि ठेकेदार नदी‑जोखिम उठाए।
  3. स्थानीय युवाओं को निर्माण‑दल में शामिल कर रोज़गार व पारदर्शिता, दोनों पक्की हों।

अगर ये कदम नहीं उठाए गए, तो आने वाला मॉनसून, चुनावी वादों और सरकारी विज्ञापनों के पुलों को बहाकर ले जाएगा—और BridgeCrisis की यह कहानी बार‑बार लिखी जाएगी।

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