फोन में खुश, दिल में खालीपन: सोशल मीडिया डिप्रेशन कैसे बना रहा है युवाओं को भीतर से खोखला?

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हाइलाइट्स

  • सोशल मीडिया डिप्रेशन का शिकार हो रहा है भारत का युवा वर्ग, बढ़ रहा मानसिक तनाव
  •  दिन में औसतन 4 से 6 घंटे बिताते हैं युवा सोशल मीडिया पर, नींद और पढ़ाई हो रही प्रभावित
  •  अकेलापन, आत्मविश्वास की कमी और अवसाद के लक्षण तेजी से उभर रहे हैं
  •  एक्सपर्ट्स का कहना—”डिजिटल तुलना” की लत ने बढ़ाई है खुद से नाखुशी
  •  मनोचिकित्सक और स्कूल काउंसलर बच्चों के सोशल मीडिया टाइम पर नियंत्रण की दे रहे सलाह

 सोशल मीडिया डिप्रेशन: क्यों बढ़ रहा है युवा वर्ग में अकेलापन?

21वीं सदी में जहां टेक्नोलॉजी ने इंसानों को एक-दूसरे से जोड़ने का काम किया है, वहीं सोशल मीडिया डिप्रेशन एक ऐसी मानसिक बीमारी बनती जा रही है, जो आज की युवा पीढ़ी को चुपचाप तोड़ रही है। इंस्टाग्राम, स्नैपचैट, फेसबुक और यूट्यूब जैसे प्लेटफॉर्म्स पर सक्रिय रहने वाले लाखों युवा धीरे-धीरे अवसाद, आत्म-संदेह और अकेलेपन की स्थिति में जा रहे हैं।

 क्या है सोशल मीडिया डिप्रेशन?

 मानसिक स्थिति जो दिखती नहीं, पर असर करती है गहरा

सोशल मीडिया डिप्रेशन एक ऐसी मानसिक स्थिति है, जिसमें व्यक्ति दूसरों की सोशल लाइफ, सफलता और सुंदरता से खुद की तुलना करने लगता है। इस तुलना से जन्म लेता है अवसाद, आत्म-संदेह और यह भावना कि “मैं अच्छा नहीं हूं” या “मेरी ज़िंदगी बोरिंग है।”

यह डिप्रेशन तब और बढ़ जाता है जब किसी पोस्ट पर कम लाइक आते हैं या सोशल नेटवर्किंग से फॉलोअर्स घटते हैं।

 आंकड़ों की नजर से सोशल मीडिया डिप्रेशन

  • भारत में 2024 तक 18-30 आयु वर्ग के लगभग 72% युवा प्रतिदिन 3 घंटे से अधिक सोशल मीडिया का उपयोग कर रहे हैं।
  • एक शोध के अनुसार, सोशल मीडिया पर अधिक समय बिताने वाले किशोरों में अकेलेपन और आत्महत्या की प्रवृत्ति 37% अधिक पाई गई।
  • दिल्ली यूनिवर्सिटी के मनोविज्ञान विभाग की रिपोर्ट बताती है कि हर 4 में से 1 छात्र सोशल मीडिया डिप्रेशन से जूझ रहा है।

 कैसे काम करता है सोशल मीडिया डिप्रेशन?

 तुलना की लत और असली जिंदगी से कटाव

  1. डिजिटल तुलना: लोग अपने जीवन की खूबसूरत झलकियां दिखाते हैं, लेकिन देखने वाला सोचता है कि सबकी जिंदगी उससे बेहतर है।
  2. फिल्टर की फरेब: फोटोज़ में सौंदर्य बढ़ाने वाले फिल्टर्स असलियत से दूर कर देते हैं। इससे आत्म-संतोष घटता है।
  3. डिजिटल इनवैलिडेशन: जब पोस्ट पर कम लाइक्स मिलते हैं, तो युवा खुद को अस्वीकार महसूस करते हैं।
  4. FOMO (Fear of Missing Out): दोस्तों की पार्टीज़, ट्रिप्स देखकर युवा सोचते हैं कि वो लाइफ को ‘मिस’ कर रहे हैं।

 युवा वर्ग पर असर: अकेलेपन से लेकर आत्महत्या तक

सोशल मीडिया डिप्रेशन का सबसे बड़ा शिकार स्कूली और कॉलेज के छात्र बन रहे हैं।

छात्रा की कहानी—”सोचती थी सबकी लाइफ परफेक्ट है, सिवाय मेरी”

जयपुर की 19 वर्षीय कॉलेज छात्रा रिद्धिमा बताती है—
“मैं दिन में करीब 5 घंटे इंस्टाग्राम पर रहती थी। जब दोस्तों को घूमते, पार्टी करते देखती थी तो लगता था मेरी लाइफ कितनी बोरिंग है। धीरे-धीरे मैं अकेली रहने लगी, नींद कम हो गई और पढ़ाई में मन नहीं लगता था।”

 विशेषज्ञों की राय

मनोचिकित्सक और स्कूल काउंसलर क्या कह रहे हैं?

डॉ. आरुषि मिश्रा (मनोचिकित्सक, दिल्ली) बताती हैं—
“सोशल मीडिया डिप्रेशन को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। यह धीमी गति से मानसिक और सामाजिक विकास को रोक देता है। बच्चे खुद को हीन समझने लगते हैं और आत्महत्या तक की सोचने लगते हैं।”

वहीं नोएडा के स्कूल काउंसलर सुरेश आनंद कहते हैं—
“अभिभावकों को चाहिए कि वे बच्चों के सोशल मीडिया टाइम पर निगरानी रखें। बात करें, समझाएं, और उन्हें असल जीवन में खुश रहने की शिक्षा दें।”

 कैसे बचा जा सकता है सोशल मीडिया डिप्रेशन से?

 जीवन में लाएं संतुलन

  • डिजिटल डिटॉक्स अपनाएं: हफ्ते में एक दिन फोन-मुक्त रहें

  • माइंडफुलनेस मेडिटेशन करें: मानसिक स्वास्थ्य को मिलेगा सहारा

  • हॉबीज़ और स्पोर्ट्स को समय दें: रियल लाइफ एक्टिविटीज़ से जुड़ाव बढ़ेगा

  • खुलकर बात करें: परिवार और दोस्तों से संवाद बनाए रखें

  •  सोशल मीडिया के इरादे को बदलें: मनोरंजन और जानकारी के लिए उपयोग करें, तुलना के लिए नहीं

सोशल मीडिया डिप्रेशन आज की दुनिया में एक अदृश्य महामारी बन चुका है। यह न सिर्फ मानसिक शांति को नष्ट करता है, बल्कि युवाओं को असहाय, अकेला और अंदर से तोड़ देता है। ऐसे समय में ज़रूरत है जागरूकता की, संवाद की और आत्म-संतोष की। सोशल मीडिया अगर संतुलन में इस्तेमाल किया जाए, तो यह वरदान है—वरना यह एक धीमा ज़हर।

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