हाइलाइट्स
- नेपाल की राजनीति में सुशीला कार्की का नाम पीएम पद के लिए सबसे आगे आया
- काठमांडू के मेयर बालेन शाह ने युवाओं की अपील का जवाब नहीं दिया
- वर्चुअल बैठक में 5,000 से ज्यादा युवाओं ने लिया हिस्सा
- 2,500 से अधिक समर्थन पत्र मिलने के बाद सुशीला कार्की ने बढ़ाई उम्मीदें
- Gen-Z आंदोलनकारी डिस्कॉर्ड ऐप पर कर रहे हैं वोटिंग
नेपाल की राजनीति में संकट और नया मोड़
नेपाल की राजनीति एक बार फिर बड़े मोड़ पर खड़ी है। हिंसा, सत्ता संकट और नेतृत्व की अनिश्चितता के बीच अब देश के भविष्य की कमान किसके हाथ में होगी, इसे लेकर गहमागहमी तेज है। इस बार खास बात यह है कि नेपाल की राजनीति को दिशा देने में पारंपरिक दलों से ज्यादा युवा वर्ग यानी Gen-Z निर्णायक भूमिका निभा रहा है।
Gen-Z की वर्चुअल सभा और सुशीला कार्की का नाम
हाल ही में हुई एक वर्चुअल बैठक में 5,000 से अधिक युवाओं ने भाग लिया। इस ऑनलाइन सभा का केंद्रबिंदु नेपाल की राजनीति का भविष्य और उसके लिए एक ईमानदार, मजबूत और पारदर्शी चेहरा तलाशना था। इस चर्चा में सबसे अधिक समर्थन पूर्व मुख्य न्यायाधीश सुशीला कार्की को मिला।
युवाओं का कहना है कि नेपाल की राजनीति को ऐसे चेहरे की जरूरत है, जो भ्रष्टाचार से दूर हो और निष्पक्षता के साथ काम करे। यही कारण है कि सुशीला कार्की का नाम तेजी से आगे बढ़ा और वह युवाओं की पहली पसंद बन गईं।
बालेन शाह का चुप्पी साधना
काठमांडू के मेयर बालेन शाह को अब तक Gen-Z का पोस्टर लीडर माना जाता रहा है। लेकिन जब युवाओं ने उनसे सीधे अपील की तो उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। एक प्रतिनिधि के अनुसार, शाह ने न तो कॉल उठाई और न ही किसी तरह की प्रतिक्रिया दी। इसी कारण चर्चा दूसरे नामों पर मुड़ गई और अंततः सुशीला कार्की सबसे मजबूत दावेदार के रूप में सामने आईं।
समर्थन पत्रों की बाढ़
सुशीला कार्की ने पहले ही यह साफ कर दिया था कि वह पीएम पद तभी स्वीकार करेंगी जब उन्हें कम से कम 1,000 लिखित समर्थन पत्र मिलें। सूत्रों का कहना है कि अब तक उन्हें 2,500 से ज्यादा समर्थन पत्र मिल चुके हैं। यह आंकड़ा दिखाता है कि नेपाल की राजनीति में उनका कद कितना तेजी से बढ़ रहा है और युवाओं के बीच उनकी लोकप्रियता कितनी मजबूत है।
अन्य नामों पर चर्चा
बैठक में सुशीला कार्की के अलावा कुछ और नामों पर भी चर्चा हुई। इनमें ऊर्जा क्षेत्र में काम करने वाले कुलमान घिसिंग, युवा नेता सागर ढकाल और पूर्व मेयर हर्का सम्पांग शामिल थे। दिलचस्प बात यह रही कि यूट्यूबर Random Nepali को भी वोट मिले। हालांकि उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया कि वे तभी भूमिका लेंगे जब बाकी सभी नाम इनकार कर देंगे।
सेना प्रमुख और राष्ट्रपति से मुलाकात
सूत्रों के अनुसार, यदि सुशीला कार्की इस प्रस्ताव को स्वीकार करती हैं तो सबसे पहले वह सेना प्रमुख जनरल अशोक राज सिग्देल से मुलाकात करेंगी। इसके बाद राष्ट्रपति रामचंद्र पौडेल की औपचारिक मंजूरी जरूरी होगी। नेपाल की राजनीति में यह प्रक्रिया बेहद अहम मानी जाती है और इससे उनके प्रधानमंत्री बनने की राह साफ हो सकती है।
Gen-Z की नई राजनीतिक सोच
यह पहली बार है जब नेपाल की राजनीति में युवा वर्ग इतनी सक्रियता से सामने आया है। Gen-Z आंदोलनकारी डिस्कॉर्ड ऐप का इस्तेमाल कर रहे हैं और वोटिंग के जरिए अपने पसंदीदा नेता का चयन कर रहे हैं। अभी भी वोटिंग के लिए 23 घंटे बचे हैं, लेकिन शुरुआती रुझान में सुशीला कार्की सबसे आगे चल रही हैं।
यह दिखाता है कि नेपाल की राजनीति अब केवल पारंपरिक दलों तक सीमित नहीं रही, बल्कि नई तकनीक और नए सोच वाले युवा इसमें निर्णायक बन रहे हैं।
क्यों खास है सुशीला कार्की का नाम?
न्यायपालिका से राजनीति तक का सफर
सुशीला कार्की नेपाल की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश रही हैं। न्यायपालिका में उनके योगदान और निष्पक्ष छवि ने उन्हें समाज में एक अलग पहचान दिलाई। भ्रष्टाचार विरोधी फैसलों और कठोर रुख के लिए वह जानी जाती रही हैं। यही वजह है कि आज नेपाल की राजनीति में युवाओं ने उन्हें अपनी पसंदीदा नेता के रूप में चुना है।
महिला नेतृत्व की मिसाल
नेपाल की राजनीति लंबे समय से पुरुष-प्रधान रही है। ऐसे में सुशीला कार्की का आगे आना महिला नेतृत्व के लिए भी बड़ी मिसाल है। अगर वह प्रधानमंत्री बनती हैं तो यह नेपाल की राजनीति के इतिहास में एक नया अध्याय होगा।
आगे की राह
अभी यह देखना बाकी है कि वोटिंग पूरी होने के बाद क्या परिणाम आते हैं और सुशीला कार्की प्रस्ताव स्वीकार करती हैं या नहीं। लेकिन यह तय है कि नेपाल की राजनीति में युवाओं का यह हस्तक्षेप आने वाले समय में बड़ा बदलाव लाने वाला है।
नेपाल की राजनीति इस समय संक्रमण काल से गुजर रही है। एक तरफ पारंपरिक दलों की पकड़ कमजोर हो रही है तो दूसरी तरफ युवाओं की आवाज बुलंद हो रही है। इस पूरी प्रक्रिया में सुशीला कार्की का उदय एक ऐतिहासिक क्षण है। अगर वह नेतृत्व स्वीकार करती हैं तो यह न सिर्फ नेपाल की राजनीति बल्कि पूरे दक्षिण एशिया में लोकतांत्रिक बदलाव का संकेत होगा।