हाइलाइट्स
- नागरिकता का नियम: दुनिया के ज्यादातर देश जन्मस्थान नहीं बल्कि खून के आधार पर नागरिकता देते हैं।
- केवल कुछ ही देश ऐसे हैं जहां जन्म लेने मात्र से नागरिकता स्वतः मिल जाती है।
- “जस सॉली” यानी जन्मभूमि का नियम अमेरिका और कुछ अफ्रीकी देशों में लागू है।
- “जस सैंग्विनिस” यानी खून का नियम यूरोप, एशिया और अधिकांश देशों में प्रभावी है।
- यह बहस अब वैश्विक स्तर पर उठ रही है कि नागरिकता का आधार भूमि हो या वंशानुगत खून।
दुनिया के हर देश की अपनी-अपनी नीतियां और कानून होते हैं। इनमें से सबसे संवेदनशील और जटिल विषय है नागरिकता का नियम। नागरिकता किसी भी व्यक्ति की कानूनी पहचान और अधिकारों का आधार होती है। सवाल यह उठता है कि किसी नवजात शिशु को नागरिकता जन्मस्थान (भूमि) के आधार पर मिलनी चाहिए या माता-पिता की नागरिकता (खून) के आधार पर? यही बहस दुनिया के अलग-अलग देशों में वर्षों से चलती आ रही है।
नागरिकता का नियम क्या है?
जन्मभूमि आधारित नागरिकता (Jus Soli)
इसे “रूल ऑफ द लैंड” कहा जाता है। इस नियम के तहत यदि कोई बच्चा किसी देश की भूमि पर जन्म लेता है तो उसे स्वतः उस देश की नागरिकता मिल जाती है। अमेरिका, कनाडा और कुछ अफ्रीकी देशों में यही नीति लागू है।
रक्त आधारित नागरिकता (Jus Sanguinis)
इसे “रूल ऑफ द ब्लड” कहा जाता है। इस नियम के तहत बच्चे की नागरिकता माता-पिता की नागरिकता पर निर्भर करती है। यूरोप, एशिया और मध्य पूर्व के अधिकांश देश इसी नियम का पालन करते हैं।
दुनिया में नागरिकता का नियम कैसे लागू है?
अमेरिका और पश्चिमी देश
अमेरिका, कनाडा और कुछ लैटिन अमेरिकी देशों में जन्मस्थान आधारित नागरिकता का नियम लागू है। इसका मतलब है कि वहां पैदा होने वाला बच्चा स्वचालित रूप से नागरिक बन जाता है।
यूरोप और एशिया
यूरोप, चीन, भारत और अधिकांश एशियाई देश रक्त आधारित नागरिकता का नियम अपनाते हैं। यहां केवल माता-पिता के नागरिक होने पर ही बच्चा नागरिकता प्राप्त करता है।
अफ्रीका
अफ्रीका महाद्वीप में स्थिति मिश्रित है। कुछ देशों में जन्मभूमि आधारित नीति है, तो कुछ देशों ने रक्त आधारित नीति अपनाई हुई है।
नागरिकता के नियम पर बहस
जन्मस्थान का तर्क
- यह बच्चे को बिना भेदभाव के समान अवसर देता है।
- प्रवासी और शरणार्थियों के बच्चों को भी नागरिकता मिल सकती है।
- इससे किसी देश में “स्टेटलेस” बच्चों की संख्या घटती है।
खून का तर्क
- यह देश की सांस्कृतिक और राष्ट्रीय पहचान को बचाने का माध्यम है।
- इससे “जन्म पर्यटन” (Birth Tourism) जैसी समस्याएं कम होती हैं।
- नागरिकता केवल उन लोगों तक सीमित रहती है जिनकी जड़ें वास्तव में उस देश से जुड़ी हों।
भारत में नागरिकता का नियम
भारत ने शुरुआत में जन्मस्थान आधारित नीति अपनाई थी। 1950 से 1987 तक भारत में जन्म लेने वाला हर बच्चा भारतीय नागरिक माना जाता था। लेकिन अवैध प्रवास और जनसंख्या के दबाव को देखते हुए 1987 और 2004 के संशोधनों में कानून बदल दिए गए। अब भारत में जन्म लेने मात्र से नागरिकता नहीं मिलती। नागरिकता का नियम यह कहता है कि माता-पिता में से कम से कम एक का भारतीय नागरिक होना जरूरी है।
नागरिकता नियम बदलने के वैश्विक कारण
- बढ़ती प्रवासी आबादी
- सुरक्षा और पहचान से जुड़ी चिंताएं
- राष्ट्रीय संसाधनों पर दबाव
- राजनीतिक और सांस्कृतिक संरक्षण की आवश्यकता
इन सभी कारणों से दुनिया के अधिकतर देशों ने जन्मस्थान आधारित नागरिकता की जगह रक्त आधारित नागरिकता का नियम अपनाया है।
विशेषज्ञों की राय
शिक्षाविदों और विधि विशेषज्ञों का मानना है कि हर देश को अपनी जनसंख्या, प्रवास दर और सामाजिक संरचना के अनुसार नागरिकता कानून बनाने का अधिकार है। लेकिन किसी भी स्थिति में बच्चों को “स्टेटलेस” यानी बिना नागरिकता के नहीं छोड़ा जाना चाहिए। यह मानवाधिकारों का गंभीर उल्लंघन है।
भविष्य की दिशा
वैश्विक स्तर पर संयुक्त राष्ट्र और अंतरराष्ट्रीय संगठनों की सिफारिश है कि नागरिकता का नियम ऐसा होना चाहिए जिससे कोई बच्चा बिना नागरिकता के न रहे। आने वाले वर्षों में संभावना है कि कई देश “मिश्रित मॉडल” अपनाएं जिसमें जन्मस्थान और माता-पिता दोनों आधारों को संतुलित तरीके से जोड़ा जा सके।
नागरिकता का नियम केवल कानूनी प्रक्रिया नहीं बल्कि किसी भी राष्ट्र की पहचान और भविष्य से जुड़ा विषय है। भूमि और खून दोनों के अपने-अपने तर्क हैं, लेकिन असल सवाल यह है कि किसी बच्चे को नागरिकता से वंचित नहीं किया जाना चाहिए। दुनिया के सामने यह चुनौती है कि वह ऐसा संतुलन खोजे जो न्यायसंगत और मानवीय दोनों हो।