हाइलाइट्स
- गर्भवती महिला को पीठ पर लादकर पति ने तय किया 2 किलोमीटर का कठिन सफर
- गुमला के चैनपुर प्रखंड के ब्रह्मपुर जोबला पाठ की दिल दहला देने वाली घटना
- सड़क, एम्बुलेंस और स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली का जीता-जागता उदाहरण
- आदिम जनजाति इलाकों में सरकारी योजनाओं की पहुंच पर सवाल
- प्रसव पीड़ा में समय पर इलाज की चुनौती ने फिर जगाई व्यवस्था पर बहस
गुमला (झारखंड)।
झारखंड के गुमला जिले में एक गर्भवती महिला को लेकर सामने आई तस्वीर ने पूरे देश का दिल झकझोर कर रख दिया है। विकास और कल्याणकारी योजनाओं की चमकदार तस्वीरों के पीछे की एक कड़वी सच्चाई तब सामने आई, जब एक आदिम जनजाति के युवक ने अपनी गर्भवती पत्नी को पीठ पर लादकर 2 किलोमीटर पैदल चलकर अस्पताल पहुंचाया।
इस हृदय विदारक घटना ने सरकारी दावों की सच्चाई उजागर कर दी है, जहां योजनाएं कागजों पर तो चल रही हैं लेकिन ज़मीन पर लोगों को अब भी इंसानियत से परे संघर्ष करना पड़ता है।
ब्रह्मपुर जोबला पाठ की तस्वीर: विकास से दूर एक अलग भारत
चैनपुर प्रखंड का पिछड़ापन
गुमला जिला का चैनपुर प्रखंड, विशेषकर कातिंग पंचायत के अंतर्गत ब्रह्मपुर जोबला पाठ गांव, अब भी बुनियादी सुविधाओं से कोसों दूर है। इस गांव तक पक्की सड़क तो दूर, एक ढंग की पगडंडी भी नहीं है। बरसात में रास्ता कीचड़ से भर जाता है और सूखे में धूल उड़ती है।
यह घटना गर्भवती महिला गुड़िया देवी की है, जो प्रसव पीड़ा से तड़प रही थीं, लेकिन गांव तक न एम्बुलेंस पहुंच सकी और न कोई प्राथमिक चिकित्सा सुविधा उपलब्ध थी।
108 एम्बुलेंस भी नहीं पहुंच सकी गांव
राज्य सरकार की आपात सेवा ‘108 एम्बुलेंस’ को बुलाया गया, लेकिन ग्रामीण इलाका इतना दुर्गम था कि एम्बुलेंस गांव तक पहुंच ही नहीं सकी। ऐसे में गुड़िया देवी के पति सुरेंद्र कोरबा ने एक असाधारण निर्णय लिया — उन्होंने अपनी गर्भवती पत्नी को पीठ पर लाद लिया और नदी-नालों को पार करते हुए 2 किलोमीटर तक पैदल चले।
ब्रह्मपुर पहुंचने के बाद एम्बुलेंस ने उन्हें सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र चैनपुर पहुंचाया, जहां गुड़िया देवी को भर्ती कराया गया।
सरकारी योजनाएं: केवल कागजों तक सीमित?
#झारखण्ड गर्भवती महिला को पीठ पर लादकर पहुंचाया गया अस्पताल 😔😔
इस हृदय विदारक तस्वीर को देखकर आज आंखें नम हो गई 😔
गुमला आदिम जनजाति की गर्भवती महिला गुड़िया देवी को प्रसव पीड़ा होने पर उसके पति ने अपनी पीठ पर लादकर नदी नालों को पार करते हुए 2 किलोमीटर तक पैदल चलकर अस्पताल… pic.twitter.com/t6bNBRmhtG
— Sutibro Goswami ( पत्रकार ) (@sutibro_goswami) August 1, 2025
आदिवासी बहुल क्षेत्रों में योजनाओं की जमीनी सच्चाई
राज्य और केंद्र सरकारें आदिम जनजातियों के लिए अनगिनत योजनाएं चलाती हैं — स्वास्थ्य, पोषण, मातृत्व देखभाल, और सड़क निर्माण जैसी। लेकिन गर्भवती महिला गुड़िया देवी की यह घटना साबित करती है कि योजनाएं कागज़ पर भले ही मजबूत हों, ज़मीन पर वे हवा-हवाई बनकर रह गई हैं।
गांव वालों का कहना है कि उन्होंने कई बार सड़क निर्माण और चिकित्सा सुविधा की मांग की है, लेकिन प्रशासन की तरफ से कोई सुनवाई नहीं होती।
पंचायत प्रतिनिधियों और अधिकारियों की चुप्पी
कातिंग पंचायत के ब्रह्मपुर जोबला पाठ की स्थिति वर्षों से जस की तस बनी हुई है। पंचायत के प्रतिनिधि हों या स्थानीय बीडीओ, सबके पास एक ही जवाब है — “प्रस्ताव भेजा गया है”, “स्वीकृति लंबित है”, या “वर्षा के कारण काम नहीं हो सका”।
लेकिन सवाल यह है कि जब एक गर्भवती महिला को पीठ पर लादकर अस्पताल ले जाने जैसी घटना हो सकती है, तो क्या यह सिस्टम की मौत नहीं है?
प्रसव सेवाएं: आदिवासी महिलाओं के लिए एक चुनौती
मातृत्व के समय की असुरक्षा
झारखंड के सुदूर इलाकों में रहने वाली महिलाओं के लिए गर्भवती महिला होना एक खतरे से कम नहीं है। प्रसव के दौरान अक्सर या तो अस्पताल बहुत दूर होते हैं, या रास्ते इतने कठिन होते हैं कि महिला अस्पताल तक पहुंच ही नहीं पाती।
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS) के आंकड़ों के अनुसार, झारखंड में आदिवासी महिलाओं में सुरक्षित प्रसव का प्रतिशत अभी भी चिंताजनक है।
संस्थागत प्रसव को बढ़ावा देने की ज़रूरत
‘जननी सुरक्षा योजना’, ‘आयुष्मान भारत’, ‘मातृ वंदना योजना’ जैसी कई योजनाएं हैं जो गर्भवती महिला के लिए संस्थागत प्रसव को बढ़ावा देती हैं। लेकिन इन योजनाओं का लाभ तभी संभव है जब महिला अस्पताल तक पहुंच सके।
जब रास्ता ही नहीं है, तो योजना किस काम की?
स्थानीय लोगों की मांगें
सड़क बनाओ, जान बचाओ
गांव के बुजुर्ग और युवक सभी एक सुर में यही कह रहे हैं — “हम सड़क नहीं मांग रहे, हम जीवन की गारंटी मांग रहे हैं।”
उनका कहना है कि अगर आज समय पर इलाज नहीं मिला होता, तो शायद एक और गर्भवती महिला की जान चली जाती।
सरकार को कब आएगी नींद?
गुमला के डीसी और झारखंड सरकार के स्वास्थ्य विभाग को इस घटना की जानकारी मिलने के बाद हलचल तो हुई, लेकिन कोई ठोस कार्यवाही अभी तक शुरू नहीं हुई है।
यदि आज एक गर्भवती महिला को अस्पताल पहुंचाने के लिए उसके पति को अपनी पीठ बनानी पड़ी, तो कल किसी और की बारी हो सकती है।
यह घटना केवल एक खबर नहीं, बल्कि सरकारी नाकामी का आईना है।
तस्वीरें जो सवाल पूछती हैं
एक पति अपनी गर्भवती पत्नी को पीठ पर उठाकर जिस तरह नदी-नालों को पार करता है, वह किसी फिल्म का दृश्य नहीं, बल्कि भारत के वास्तविक गांवों की तस्वीर है। यह तस्वीर चीख-चीखकर कहती है कि योजनाएं, घोषणाएं और पोस्टर काफी नहीं होते — असली ज़रूरत जमीनी बदलाव की है।