संयुक्त राष्ट्र‑अमेरिका ब्रीफिंग में उठा सवाल: मानवाधिकार हनन के आरोपों के चलते भारत को ‘विशेष चिंता देश’ नामित करने की माँग

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हाइलाइट्स

  1. मानवाधिकार हनन को लेकर संयुक्त राष्ट्र व अमेरिकी अधिकारियों ने भारत पर गंभीर प्रश्न उठाए।
  2. कैपिटल हिल में 17 जुलाई को हुई कांग्रेस ब्रीफिंग में 100 से ज़्यादा कांग्रेसी कर्मचारियों ने सुनी विशेषज्ञों की दलीलें।
  3. प्रोफेसर निकोलस लेवराट ने कहा—भारत “विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र” होने के दावे पर खरा नहीं उतर रहा।
  4. भारत सरकार ने मानवाधिकार हनन के आरोपों को पक्षपात बताया, संयुक्त राष्ट्र पत्र का अब तक कोई जवाब नहीं।
  5. विशेषज्ञों ने चेतावनी दी—यदि मानवाधिकार हनन का सिलसिला चलता रहा तो द्विपक्षीय रिश्तों पर पड़ेगा गहरा असर।

ब्रीफिंग का परिदृश्य: मानवाधिकार हनन पर वैश्विक फोकस

वॉशिंगटन डी.सी. के कैपिटल हिल में 17 जुलाई 2025 को आयोजित इस कांग्रेस ब्रीफिंग का मुख्य विषय भारत में कथित मानवाधिकार हनन और धार्मिक स्वतंत्रता का क्षरण था। संयुक्त राष्ट्र व अमेरिकी विभागों के वरिष्ठ प्रतिनिधियों ने कहा कि भारत में “सतत, संगठित और उग्र” मानवाधिकार हनन का सिलसिला इसे ‘Country of Particular Concern’ (CPC) घोषित कराने के मानक तक पहुँचा देता है।

प्रमुख वक्ता और उनकी टिप्पणियाँ

ब्रीफिंग में यूएन विशेष दूत प्रो. निकोलस लेवराट, यूएन मानवाधिकार रक्षकों के वरिष्ठ सलाहकार एड ओ’डोनोवन, यूएससीआईआरएफ के उपाध्यक्ष डॉ. आसिफ महमूद, फ्रीडम हाउस की अध्यक्ष एनी बोयाजियन तथा हिंदूज़ फ़ॉर ह्यूमन राइट्स की रिया चक्रवर्ती मौजूद थे। इन सबने एक स्वर में आरोप लगाया कि मानवाधिकार हनन भारत की लोकतांत्रिक साख को बुनियादी स्तर पर चुनौती दे रहा है।

प्रोफेसर निकोलस लेवराट का बयान

लेवराट के अनुसार, “जब सरकार स्वयं या उसकी नीतियाँ अल्पसंख्यकों को निशाना बना रही हों, तो यह केवल मानवाधिकार हनन नहीं, बल्कि संवैधानिक नैतिकता का पतन है।” उन्होंने यह भी रेखांकित किया कि पिछले वर्ष यूएन विशेषज्ञों ने भारत सरकार को पत्र लिख कर नफ़रत भरे भाषणों पर रोक लगाने की गुहार की, पर उत्तर नहीं मिला—जिसे वे मानवाधिकार हनन के प्रति ‘राजनीतिक उदासीनता’ का उदाहरण मानते हैं।

भारत का आधिकारिक रुख़ और मानवाधिकार हनन के आरोप

सरकारी प्रतिक्रिया

विदेश मंत्रालय ने बयान जारी कर कहा कि भारत में “जीवंत लोकतंत्र और मज़बूत न्यायपालिका” किसी भी मानवाधिकार हनन की शिकायत को त्वरित समाधान उपलब्ध कराती है। मंत्रालय ने यूएन रिपोर्टों को “पूर्वाग्रह‑ग्रस्त” बताया और कहा कि “ऐसे आरोप भारत की संप्रभु व्यवस्थाओं को दुर्भावना से बदनाम करते हैं।”

विपक्ष और सिविल सोसायटी की राय

हालाँकि सरकारी दलीलें अपनी जगह हैं, विपक्षी दलों और मानवाधिकार संगठनों का दावा है कि जमीनी हकीक़त अलग है। उनका कहना है कि भीड़‑हिंसा, डिजिटल सेंसरशिप और आतंकवाद‑रोधी क़ानूनों के दुरुपयोग जैसे मामले मानवाधिकार हनन की श्रेणी में आते हैं, जिन पर अंतर्राष्ट्रीय समुदाय का ध्यान खींचना स्वाभाविक है।

अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ: CPC नामांकन की प्रक्रिया

USCIRF की भूमिका

अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम (IRFA‑1998) के तहत अमेरिकी विदेश विभाग हर साल उन देशों को CPC सूची में रखता है जहाँ “व्यवस्थित, सतत और उग्र” मानवाधिकार हनन होता है। यूएससीआईआरएफ सिफ़ारिश भेजता है, जिसे विदेश मंत्रालय स्वीकार या अस्वीकार कर सकता है। 2023 की रिपोर्ट में भी भारत का नाम CPC हेतु सुझाया गया था, लेकिन अंतिम सूची में नहीं डाला गया।

संभावित परिणाम

यदि भारत को CPC सूची में डाला गया, तो उसे रक्षा सहयोग, व्यापार सौदों और तकनीकी हस्तांतरण में शर्तों का सामना करना पड़ सकता है। जानकार मानते हैं कि मानवाधिकार हनन से जुड़ी छवि किसी भी उभरती अर्थव्यवस्था के लिए निवेश माहौल को प्रभावित कर सकती है।

विश्लेषण: मानवाधिकार हनन पर राजनयिक असर

आर्थिक और सैन्य साझेदारी पर प्रभाव

भारत‑अमेरिका द्विपक्षीय व्यापार 200 अरब डॉलर के आँकड़े की ओर बढ़ रहा है। यदि मानवाधिकार हनन के कारण प्रतिबंधात्मक शर्तें लागू हुईं, तो रक्षा सौदे—जैसे जेट इंजन को‑प्रोडक्शन—खटाई में पड़ सकते हैं। विशेषज्ञ चेताते हैं कि निवेशक संवेदनशील होते हैं; लगातार नकारात्मक रिपोर्टें पूँजी प्रवाह धीमा कर सकती हैं।

लोकतांत्रिक छवि पर असर

‘विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र’ होना भारत की ‘सॉफ्ट पावर’ का आधार है। परन्तु मानवाधिकार हनन के आरोप यदि अंतर्राष्ट्रीय मंच पर पुष्ट होते हैं, तो यह सॉफ्ट पावर क्षरित हो सकती है, जिससे सांस्कृतिक कूटनीति और वैश्विक नेतृत्व की संभावनाएँ कमजोर पड़ेंगी।

ज़मीनी सरोकार: अल्पसंख्यक समुदाय और मानवाधिकार हनन

कश्मीरी मुसलमानों से लेकर दलित ईसाइयों तक, कई समूहों ने कथित मानवाधिकार हनन की शिकायतें दर्ज कराईं। एक्टिविस्टों का कहना है कि आतंकवाद‑रोधी कानूनों का “प्रोसेस पनिशमेंट” पक्षपाती गिरफ्तारी पैटर्न दिखाता है। वहीं, सरकार दलील देती है कि राष्ट्रीय सुरक्षा सर्वोपरि है और “अल्पसंख्यक कल्याण योजनाओं” के माध्यम से अवसर बढ़ाए जा रहे हैं।

रास्ता आगे: समाधान के सुझाव

  1. संसद में सर्वदलीय समिति बनाकर मानवाधिकार हनन के आरोपों की निष्पक्ष जाँच।
  2. पुलिस सुधार व न्यायिक क्षमता‑वृद्धि से अल्पसंख्यकों का विश्वास बहाल।
  3. सांवैधानिक संस्थाओं की पारदर्शिता बढ़ाने के लिए डेटा सार्वजनिक करना—भीड़ हिंसा, हिरासत मौतें आदि पर।
  4. डिजिटल अधिकारों के क्षेत्र में स्वतंत्र नियामक, जिससे ऑनलाइन मानवाधिकार हनन रोका जा सके।
  5. अंतर्राष्ट्रीय संवाद—यूएन व यूएससीआईआरएफ के साथ प्रत्यक्ष चर्चा—ताकि आरोप‑प्रत्यारोप की जगह समाधान‑प्रधान सहयोग बढ़े।

मौजूदा बहस केवल एक विदेशी मंच पर हुई आलोचना नहीं, बल्कि भारत की लोकतांत्रिक आत्म‑समिख्या का अवसर है। यदि मानवाधिकार हनन की धारणा को मिटाना है, तो पारदर्शिता, जवाबदेही और समावेशी नीति‑निर्माण अनिवार्य होगा। अन्यथा, ‘विशेष चिंता देश’ का ठप्पा न सिर्फ़ अंतर्राष्ट्रीय साझेदारियों को चुनौती देगा, बल्कि भीतर से भी लोकतांत्रिक ताने‑बाने को कमज़ोर करेगा।

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