लेबनान की राजधानी बेरूत को कभी मिडिल ईस्ट का पेरिस कहा जाता था। यहां की समृद्ध संस्कृति, कला और विज्ञान ने इसे वैश्विक स्तर पर खास स्थान दिलाया। 18वीं शताब्दी में लेबनान को ईसाई और ड्रूज समुदाय ने आधुनिकता की ओर अग्रसर किया। उस समय, लेबनान मिडिल ईस्ट में एकमात्र ऐसा देश था जहाँ ईसाई समुदाय बहुसंख्यक था। लेकिन समय के साथ लेबनान की डेमोग्राफी में बड़े बदलाव आए।
1956 के बाद से, ईसाइयों की बहुसंख्यक आबादी घटकर 54% रह गई, जबकि मुसलमानों की जनसंख्या बढ़कर 40% हो गई। लेबनान में बड़ी संख्या में फिलिस्तीनी शरणार्थियों को बसाया गया, जिसके चलते वहां की सामाजिक संरचना में और भी बड़े बदलाव आए। इन शरणार्थियों को नागरिकता देने के लिए देशव्यापी आंदोलनों ने जोर पकड़ा, और धीरे-धीरे फिलिस्तीनी और सीरियाई मुसलमानों को नागरिकता दी गई। इसका परिणाम यह हुआ कि लेबनान में मुसलमानों की आबादी तेजी से बढ़ने लगी और वे बहुसंख्यक बन गए, 55%, जबकि ईसाइयों की जनसंख्या घटकर 40% रह गई।
यहां से लेबनान की राजनीति और समाज में तनाव और संघर्ष का दौर शुरू हुआ। सत्ता पर वर्चस्व के लिए ईसाई और मुसलमान समुदायों के बीच गृहयुद्ध छिड़ गया। इस संघर्ष ने बेरूत जैसे समृद्ध और सांस्कृतिक केंद्र को भी तबाह कर दिया। बेरूत के मशहूर सिटी पैलेस सिनेमा हॉल, जो कभी कला और संस्कृति का प्रतीक था, इस युद्ध का शिकार हो गया।
इस स्थिति ने एक बड़ा सवाल खड़ा किया है: जब मुसलमान बहुसंख्यक बनते हैं, तो क्या वे अल्पसंख्यक या गैर-मुसलमान समुदायों पर हावी होने की कोशिश करते हैं? यह सवाल सिर्फ लेबनान तक सीमित नहीं है, बल्कि वैश्विक स्तर पर भी उठता है। कई जगहों पर जहां मुसलमान अल्पसंख्यक होते हैं, वहां वे मानवाधिकारों की दुहाई देते हैं और समानता की मांग करते हैं। लेकिन वहीं जब वे बहुसंख्यक बन जाते हैं, तो क्या वे वही सहिष्णुता दिखाते हैं जो वे अपने अल्पसंख्यक होने के समय दूसरों से अपेक्षा करते हैं?
यह दोहरे मापदंड का सवाल अक्सर धर्म, राजनीति और सामाजिक संरचना के बीच संतुलन की चुनौती को सामने लाता है। लेबनान इसका जीता-जागता उदाहरण है, जहाँ बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक के बीच संघर्ष ने पूरे देश की स्थिरता को चुनौती दी है।