उत्तर प्रदेश के ललितपुर जिले के सेमरा डांग गांव की महिलाएं आज भी जातीय भेदभाव की क्रूरता का सामना कर रही हैं। भले ही सरकारी दावे और सामाजिक सुधारों की बातें जातीय भेदभाव को समाप्त करने का दावा करती हों, लेकिन इन महिलाओं के लिए यह वास्तविकता से परे है। इस गांव की कमजोर तबके की महिलाएं, विशेष रूप से दलित समुदाय से जुड़ीं, आज भी ऊंची जाति के लोगों के सामने अपने अपमानजनक हालात को जीने पर मजबूर हैं।
गांव की महिलाओं का कहना है कि जब वे ऊंची जातियों के लोगों के घरों के सामने से गुजरती हैं, तो उन्हें अपने पैरों से चप्पल उतार कर हाथ में लेनी पड़ती है। यह परंपरा पीढ़ियों से चलती आ रही है और आज भी इस प्रथा में कोई बदलाव नहीं आया है। एक पीड़ित महिला ने कहा, “हम जैसे ही ऊंची जाति के लोगों के घरों के सामने से गुजरते हैं, हमें चप्पलें उतारनी पड़ती हैं। गांव से बाहर जाते ही हम चप्पल फिर से पहन सकते हैं। हमारी सास और दादी भी इसी प्रथा का पालन करती थीं, और हम भी यह करने के लिए मजबूर हैं।”
आरक्षण के खिलाफ माथा पीटने वाले बताएँगे कि इस समय उनको साथ ऐसा कहां होता है.
— Raj Kumar Kabir (@rajkumarkabir1) October 10, 2024
ऐसा कराने वालों को चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिए. #जातिवादी_कट्टरता pic.twitter.com/Dy9IDBa6sF
महिलाओं ने यह भी बताया कि इस परंपरा का पालन केवल कमजोर और निम्न जाति के लोग ही करते हैं, जबकि ऊंची जाति की महिलाएं बिना किसी रोक-टोक के चप्पल पहनकर इन रास्तों से गुजर सकती हैं। यह भेदभावपूर्ण प्रथा न केवल महिलाओं के आत्म-सम्मान को ठेस पहुंचाती है, बल्कि गांव में जाति आधारित असमानता और भेदभाव की गहरी जड़ों को भी उजागर करती है।
सरकार और सामाजिक संगठनों के तमाम प्रयासों के बावजूद, सेमरा डांग जैसे गांवों में जातीय भेदभाव और ऊंच-नीच की यह प्रथा आज भी कायम है। गांव की महिलाओं के अनुसार, इसे बदलने की कोई ठोस कोशिश नहीं की गई है, और वे आज भी इस अपमानजनक परंपरा को ढोने के लिए विवश हैं।
समाज में समानता और अधिकारों की बात करना तब तक बेमानी है, जब तक इन गांवों की हाशिए पर खड़ी महिलाओं को उनका अधिकार और सम्मान नहीं मिलता। सेमरा डांग जैसे गांवों में बदलाव लाने के लिए न केवल कानूनी पहल की जरूरत है, बल्कि सामाजिक जागरूकता और शिक्षा का भी महत्व बढ़ जाता है।