कांवड़ यात्रा के रूट पर फल सब्ज़ी विक्रेताओं व रेस्टोरेंट ढाबा मालिकों को बोर्ड पर अपना नाम लिखना अनिवार्य कर दिया गया है। इस फैसले के पीछे के कारण पर बहस हो रही है। कुछ लोग इसे मुसलमानों या दलितों के आर्थिक बॉयकॉट की दिशा में उठाया गया कदम मानते हैं, जबकि कुछ लोग इसे सामान्य व्यापारिक प्रथा का हिस्सा मानते हैं।
जो लोग यह तय करना चाहते हैं कि कौन क्या खाएगा, अब वे यह भी तय करेंगे कि कौन किससे क्या खरीदेगा। इस निर्णय का विरोध करने वालों का कहना है कि यह भेदभावपूर्ण है और इसका उद्देश्य विशेष समुदायों को निशाना बनाना है। उनके मुताबिक, जब ढाबों के बोर्ड पर "हलाल" लिखा जाता है, तब कोई विरोध नहीं होता। लेकिन, जब किसी होटल के बोर्ड पर "शुद्ध शाकाहारी" लिखा होता है, तब भी हम होटल के मालिक, रसोइये, वेटर का नाम नहीं पूछते।
▪️कांवड़ यात्रा के रूट पर फल सब्ज़ी विक्रेताओं व रेस्टोरेंट ढाबा मालिकों को बोर्ड पर अपना नाम लिखना आवश्यक होगा।
— Pawan Khera 🇮🇳 (@Pawankhera) July 18, 2024
▪️यह मुसलमानों के आर्थिक बॉयकॉट की दिशा में उठाया कदम है या दलितों के आर्थिक बॉयकॉट का, या दोनों का, हमें नहीं मालूम।
▪️जो लोग यह तय करना चाहते थे कि कौन क्या खाएगा,… pic.twitter.com/pMQYQ0X7VP
किसी रेहड़ी या ढाबे पर "शुद्ध शाकाहारी," "झटका," "हलाल," या "कोशर" लिखा होने से ग्राहकों को अपनी पसंद का भोजन चुनने में सहायता मिलती है। लेकिन, ढाबा मालिक का नाम लिखने से किसे क्या लाभ होगा, यह सवाल अब भी बना हुआ है।
भारत के बड़े मीट एक्सपोर्टर में कई हिंदू व्यापारी शामिल हैं। क्या हिंदुओं द्वारा बेचा गया मीट दाल भात बन जाता है? उसी तरह, क्या किसी अल्ताफ़ या रशीद द्वारा बेचे गए आम या अमरूद गोश्त तो नहीं बन जाएँगे? इन सवालों का जवाब ढूंढना आवश्यक है ताकि समाज में सौहार्द्र बना रहे और किसी भी समुदाय के साथ भेदभाव न हो।